प्रभु संकीर्तन 48

।। नमो राघवाय ।।

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें।।

नाथ जीव तव मायाँ मोहा।
सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा।।

ता पर मैं रघुबीर दोहाई।
जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।

सेवक सुत पति मातु भरोसें।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।।
(श्रीरामचरितमानस- ४ / २ / १ – ४)

हे नाथ ! यद्यपि मुझमें बहुत-से अवगुण है, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। (आप उसे न भूल जायँ।) हे नाथ ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आपही की कृपा से निस्तार पा सकता है।

उस पर हे रघुवीर ! मैं आपकी दुहाई ( शपथ ) करके कहता हूँ कि मै भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिन्त रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है। अर्थात करना ही पड़ता है।

।। जय भगवान श्री ‘राम’ ।।

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