बात तबकी है, जब प्रथम जैन तीर्थंकर श्रीआदिनाथ पृथ्वीपर राज करते थे। राज करते-करते दीर्घकाल व्यतीत हो गया, तब देवलोकमें खलबली मच गयी कि मध्यलोकमें राजा ऋषभनाथ अर्थात् आदिनाथको इसी जन्ममें मोक्ष प्राप्त करना है, और वे महापुरुष अभी संसारी मोह जालमें फँसे हैं, उन्हें सचेत करना है और संसारके प्रति विरक्ति-भाव जगाना है। उन्होंने एक उपाय सोचा कि राजाको नृत्यकलासे अधिक लगाव है, अतः नृत्यकलाके ही माध्यमसे इनमें विरक्त भाव जाग्रत् होगा। तभी वे कल्याणमार्गमें अग्रसर हो सकते हैं।
देवोंने एक ऐसी सुन्दर देवीको राजदरबारमें नृत्य करनेको भेजा, जिसकी अल्प आयु ही अवशेष थी। राजदरवारमें नृत्य प्रारम्भ हुआ, नृत्य करते-करते उस देवांगनाकी आयुके निमेष पूरे होनेको थे, तभी देवोंने दूसरी देवांगनाको पलक झपकते ही उसकी जगह नृत्य करनेको खड़ा कर दिया। आदिपुरुषने अपने अवधि जानसे इस क्षणिक परिवर्तनको जान लिया और मनमें सोचा, अहो ! यह जीवन कितना अथिर असथीर है, मैं अभीतक इस संसारके रागमें फँसा रहा! यह सोचकर राजवस्त्रका त्यागकर, राज्यको अपने पुत्रको सौंप जिनेश्वरी मुद्रा धारण करके वे वनको चल दिये।
इस उदाहरणसे यह प्रमाणित होता है कि संगीत कला, नृत्यकला भी कहीं-कहीं कल्याणका कारण हो जाती है।
ऋषभनाथ को मोक्ष प्राप्त
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