परम पूज्य श्रीसदगुरूदेव भगवान जी की असीम कृपा एवं उनके अमोघ आशीर्वाद से प्राप्त सुबोध के आधार पर, उन्हीं की सत्प्रेरणा से दिनांक १३ मार्चसे प्रारम्भ की गई ”व्यावहारिक नवनिधियाँ” की इस पावन चर्चामें आप सभी आदरणीय सुधी महानुभावों एवं विदुषी देवियों का हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन है।
”व्यावहारिक अष्टसिद्धियों” की प्राप्ति, प्रत्येक समझदार व्यक्तिके लिए आवश्यक होती है, वैसे ही व्यावहारिक “नव निधियों” की प्राप्ति भी, हरेक व्यक्तिके लिए और भी अधिक आवश्यक है।
“व्यावहारिक अष्टसिद्धियों” की प्राप्ति में सफलता पानेके लिए “व्यावहारिक नव निधियाँ”, बड़ी ही उपयोगी सिद्ध हुआ करती हैं, क्योंकि उनके सहयोगके बिना, “व्यावहारिक अष्टसिद्धियों” की प्राप्ति में सफलता मिलना कठिन व संदिग्ध रहता है।
”अष्टसिद्धियाँ” और ”नवनिधियाँ” एक- दूसरे की परिपूरक हुआ करती हैं।
निधि का अर्थ –
वस्तुतः ”निधि” का तात्पर्य है- देवताओं में जो धन के देवता कुबेर हैं, उनका वह अनमोल व अपरिमित खजाना, जो देवताओं एवं मानवजाति के लिए अतिशय भौतिक सुख-समृद्धिदायक हुआ करता है।
शास्त्रों में नव- निधियों के नाम हैं:- १. पद्म निधि, २. महापद्म निधि, ३. नील निधि, ४. मुकुंद निधि, ५. नंद निधि, ६. मकर निधि, ७. कच्छप निधि, ८. शंख निधि और ९. खर्व या मिश्र निधि।
विद्वानों और मनीषियों ने अपने- अपने “विवेक” से, शास्त्रों में जिन ”अष्ट सिद्धियों” और ”नव निधियों” का उल्लेख किया है, उन्हें प्राप्त कर पाना, हम जैेसे सामान्य व साधारण लोगों के बस की बात नहीं होती।
परन्तु जो ”व्यावहारिक अष्ट सिद्धियाँ एवं नवनिधियाँ” होती हैं, उनको प्राप्त करनेका प्रयास, घर-गृहस्थीमें रहते हुए, प्रत्येक सामान्य व्यक्ति भी कर सकता है, उसे करना भी चाहिए तथा उन्हें पानेमें सफल भी हुआ जा सकता है।
”व्यावहारिक नवनिधियों” में- “पहली निधि” – “विवेक” की चर्चा कलके अंक-२ में प्रस्तुत की जा चुकी है।
आज दूसरी निधि की विवेचना प्रस्तुत है, और वह है:-
(२) “वैराग्य” –
अपनी पहली अनमोल व्यावहारिक निधि – ”विवेक” से जब व्यक्ति, अपनी नाना प्रकारकी कामनाओं व अभिलाषाओंकी पूर्ति हेतु किए जानेवाले कर्मोंके संबन्धमें, क्या सही है और क्या गलत, इस बातका निर्णय ले लेता है, तो जो अपने तथा समाजके लिए हानिकारक कामनाएँ व उनकी प्राप्तिके लिए हानिकारक प्रयास उसके द्वारा किये जाते हैं, उनसे मनको हटा लेना ही ”वैराग्य” कहलाता है।
घर गृहस्थी त्याग कर, साधुवेष धारण कर जंगलों, आश्रमों, तीर्थों आदिमें भटकते हुए नाना प्रकारके कष्टकारी तपोंसे अपनेको तपाना व अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना व्यावहारिक ”वैराग्य” नहीं है।
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ (आँख, कान, जिह्वा, नासिका, त्वचा, हाथ, पाँव, मुँह, वक्ष, उपस्थ व गुदा) तथा हमारा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) अपने- अपने विषयोंके भोगके लिए प्रायः हर समय ही तत्पर व लालायित रहा करते हैं।
जीवन निर्वाह, आत्म-सुरक्षा व स्वस्थताके लिए, उक्त सभी इन्द्रियोंका अपने- अपने भोगोंका “यथोचित उपभोग” करना, अत्यावश्यक और अपरिहार्य है।
लेकिन ज्यों ही हमारे किसी भी इन्द्रीके भोग, अनैतिक, अनिवार्यतासे अधिक, मनमाने ढंगसे और अनियन्त्रित भोगे जाने लगते हैं, त्यों ही वे अपने लिए तथा समाजके लिए भी अनर्थकारी व हानिकारक सिद्ध होने लगते हैं। इसीलिए उन्हें “पाप कर्म” कहा जाता है।
अनर्थकारी उपभोग ही, बुरी “आदतों” व “लतों” के रूप में, हमारे मनमें सवार हो जाते हैं और फिर वह “अनैतिक उपभोग” ही, हमें उन्हें पानेके लिए बारबार “अनैतिक पापकर्म” में धकेल देते हैं।
फिर उन विषयोंका आवश्यकता से अधिक और अनैतिक उपभोग ही, हमें नाना प्रकारके कष्टों और रोगोंके रूपमें भोगना पड़ता है।
अस्तु! संयमी जीवन जीनेका नाम है – ”वैराग्य”। ऐसा संयमी जीवन जीना ही, मानवके लिए दूसरी “व्यावहारिक नवनिधि” है।
“तीसरी” व्यावहारिक नवनिधि की चर्चा अगले अंक-४ में……।
सादर,
**ॐ श्री सदगुरवे परमात्मने नमो नमः**