महर्षि वाल्मीकि जनता के समक्ष सीता परम शुद्धा है

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।। नमो राघवाय ।।

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास।
(दोहावली- २)

अर्थ-
तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीसीता जी और श्रीलक्ष्मण जी के सहित प्रभु श्रीरामचन्द्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुन ध्यान सुमंगल- परम कल्याण का निवास स्थान है।

।। भगवान सभी के हृदय शुद्ध एवं निर्मल करें ।।

सीताजी को निर्जन वन में छोड़कर लक्ष्मणजी जा रहे हैं। श्रीसीता जी फूट-फूटकर रोती हुई अपना संदेश श्रीराम जी को भेजती हैं-

अहं तु नानुशोचामि स्वशरीरं नरर्षभ।।
यथापवादं पौराणां तथैव रघुनन्दन।
पतिर्हि देवता नार्याः पतिर्बन्धुः पतिर्गुरुः।
प्राणैरपि प्रियं तस्माद् भर्तुः कार्यं विशेषतः।।
(वाल्मीकि रामायण- ७ / ४८ / १६ – १८)

‘हे पुरुषोत्तम ! मुझे अपने शरीर के लिये कुछ भी चिन्ता नहीं है। रघुनन्दन ! जिस तरह पुरवासियों के अपवाद से बचकर रहा जा सके, उसी तरह आप रहें। स्त्री के लिये तो पति ही देवता है, पति ही बन्धु है, पति ही गुरु है। इसलिये उसे प्राणों की बाजी लगाकर भी विशेषरूप से पति का प्रिय करना चाहिये।’

पाताल-प्रवेश के पूर्व अश्वमेधयज्ञ के प्रसंग में महर्षि वाल्मीकि जनता के समक्ष सीता की पवित्रता का प्रमाण देते हुए कहते है-

‘मैंने हजारों वर्षों तक तप किया है, मैं उस तप की शपथ खाकर कहता हूँ यदि सीता अपवित्र है तो मेरे तप के सम्पूर्ण फल नष्ट हो जायँ। मैं अपनी दिव्यदृष्टि और ज्ञानदृष्टि से विश्वास दिलाता हूँ कि सीता परम शुद्धा है।’

सीताजी की स्तुति करते हुए गोस्वामीजी नतमस्तक होकर कहते हैं-

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।

श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ करुनानिधान की।।

।। जय भगवान श्री सीताराम ।।

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