राजा जनक के दरबार में भगवान शंकर का धनुष

राजा लोग पहले कमर कसते हैं, माने अपने बल का प्रदर्शन करते हैं, फिर उठते हैं, तब व्याकुल होकर अपने देव को मनाते हैं-
“परिकर बाँधि उठे अकुलाई।
चले इष्ट देवन्ह सिरु नाई॥”
वे मूर्ख इस धनुष को देव कृपा से तोड़ना चाहते हैं, वे नहीं जानते कि यह देव कृपा से नहीं, गुरुदेव कृपा से टूटता है।
यहाँ जनकजी की सभा में जब लक्ष्मण जी उबल पड़े, माने वैराग्य तप गया, मन के संसार से मुड़ने और भगवान से जुड़ने का समय हो गया। बस गुरू जी ने वचन का हथौड़ा चला दिया। विश्वामित्र जी ने कहा-
“उठऊ राम भंजऊ भव चापा।
मेटहू तात जनक परितापा॥”
और भी देखें, राजा लोग उठते हैं पाने के लिए, रामजी उठे तो कुछ पाने के लिए नहीं उठे, जनकजी का ताप मिटाने के लिए उठे।
राजा लोग अपने संकल्प से उठते हैं, राम जी में अपना न कोई संकल्प है न विकल्प। जिसका मैं और मेरा गुरू जी के चरणों में विलीन हो गया, उसका अपना संकल्प कैसा? गुरू जी का संकल्प ही राम जी का संकल्प है।
गुरू जी ने यह नहीं कहा कि राम तुम भी प्रयास कर लो। कहा है- “तोड़ दो!” तो समझ लो धनुष तो टूट ही गया। गुरू जी के संकल्प में टूट गया, तो बाहर भी टूट ही जाएगा। मुझे तो बस छूना भर है। कुछ करना थोड़े है?
राजा कामनाग्रस्त हैं, व्याकुल हैं। राम जी को न हर्ष है न विषाद। मुझे तो गुरु जी की आज्ञा का पालन करना है, हानि लाभ वे जानें, मैं तो उनका यंत्र मात्र हूँ।
देखो, आपने बंदूक चलाई, निशाना लगा न लगा, बड़ाई किसकी है? बंदूक की या आपकी? गुरू जी चलाने वाले हैं, हम चलने वाले हैं, उनका काम वे जानें, हम चिंता क्यों लें? हमें तो बस उनकी आज्ञा में चलना भर है।

राम जी ने पहले गुरू जी के चरणों में प्रणाम किया, फिर चले। सहज चले। धनुष के पास पहुँचे। पुनः मन में गुरू जी को प्रणाम किया। संकेत यह कि दोनों प्रकार से प्रणाम करना चाहिए। गुरू जी का सानिध्य मिल जाए तो सशरीर प्रणाम करें, गुरू जी पास न हों तो मानसिक प्रणाम करें।

जय सियाराम

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