।। नमो राघवाय ।।
राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित महेवा घाट की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ तुलसीदास जी का विवाह हुआ था।
तुलसीदास जी व रत्नावली दोनों का बहुत सुन्दर जोड़ा था। दोनों विद्वान थे। दोनों का सरल जीवन चल रहा था। परन्तु विवाह के कुछ समय बाद रत्नावली अपने भाई के साथ मायके चलीं गई, तब उनका वियोग तुलसीदास जी के लिये असहनीय हो गया था।
एक दिन रात को वे अपने को रोक नहीं पाये.! आव देखा न ताव घनघोर अंधेरी रात में व धुंआधार चलती बरसात में ही एक लाश को लकड़ी का लट्ठा समझकर उफनती यमुना नदी तैरकर पार कर गये.! और रत्नावली के गांव पहुंच गये।
वहां रत्नावली के मायके के घर के पास पेड़ पर लटके सांप को रस्सी समझ कर ऊपर चढ़ गये और उसके कमरे में पहुंच गये। इस पर रत्नावली ने उन्हें बहुत धिक्कारा और भाव भरे मार्मिक लहजे में स्वरचित दोहा सुनाया-
अस्थि चर्म मय देह मम, ता में ऐसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम महि, होति न तव भवभीति।।
अर्थात ”मेरे इस हाड- मांस के शरीर के प्रति जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उतनी अगर प्रभु श्री राम से होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होता.!
यह सुनकर तुलसीदास जी सन्न रह गये। उनके हृदय में यह बात गहरे तक उतर गयी। और उनके ज्ञान चक्षु खुल गये। उनको अपनी मूर्खता का एहसास हो गया। वे एक क्षण भी रुके बिना वहां से चल दिये। और उनका हृदय परिवर्तन हो गया।
इन्ही शब्दों की शक्ति ने तुलसीराम को महान गोस्वामी तुलसीदास जी बना दिया। तुलसीदास जी के नये अवतार ने रामचरितमानस जैसे महाकाव्य की रचना की। भारत ही नहीं सारी दुनिया उनकी रचनाओं का लोहा मानती है।
।। जय प्रभु श्री ‘राम’ ।।