संतानके मोहसे विपत्ति

temple buddha statue

किसी समय तुङ्गभद्रा नदीके किनारे एक उत्तम नगर था। वहाँ आत्मदेव नामके एक सदाचारी, कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नीका नाम था धुन्धुली। वह सुन्दरी थी, सत्कुलोत्पन्न थी, घरका कार्य करनेमें निपुण थी किंतु बहुत बोलनेवाली, कृपण, कलहप्रिय और दूसरोंके झगड़ोंमें आनन्द लेनेवाली थी। आत्मदेव अपनी पत्नीके साथ संतुष्ट थे; किंतु उन्हें इस बातका बड़ा दुःख था कि उनके कोई संतान नहीं है। उन्होंने दान पुण्यमें अपनी सम्पत्तिका आधा भाग व्यय भी किया किंतु कोई संतति नहीं हुई। अन्तमें दुखी होकर उन्होंने देहत्यागका निश्चय कर लिया और एक दिन चुपचाप बनमें चले गये वनमें प्यास लगनेपर एक सरोवरसे जल पीकर वे बैठे थे कि वहीं एक संन्यासी आ गये। उन्हें जल पीकर स्थिर बैठे देख ब्राह्मण आत्मदेव उनके समीप पहुँचे और उनके चरणोंपर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे।

संन्यासी महात्माके पूछनेपर आत्मदेवने अपने कटकी बात बतलायी और पुत्र प्राप्तिका उपाय पूछा। दैवज्ञ संन्यासीने योगबलसे उनकी भाग्य रेखा देखकर बताया- ‘तुम्हारे प्रारब्धमें सात जन्मोंतक पुत्र नहीं है। पुत्रप्रासिके मोहको छोड़ दो। यह मोह अज्ञानसे ही है। देखो! पुत्रके कारण महाराज सगर और राजा अङ्गको भी अत्यन्त दुःख भोगना पड़ा है सुख तो मोहको छोड़कर भगवान्का भजन करनेमें ही है।’ परंतु ब्राह्मण तो संतानकी इच्छासे मोहान्ध हो रहे थे। उन्होंने कहा- ‘यदि आपने पुत्रप्राप्तिका उपाय नबताया तो मैं यहीं आपके सामने ही प्राण त्याग दूँगा ।’ अन्तमें विवश होकर महात्माने ब्राह्मणको एक फल देकर कहा- ‘क्या किया जाय, तुम्हारा दुराग्रह बलवान् है; किंतु पुत्रसे तुम्हें सुख नहीं होगा। क्योंकि प्रारब्धके विपरीत हठ करनेसे कष्ट ही मिलता है। अच्छा, यह फल ले जाकर अपनी पत्नीको खिला दो, इससे उसे पुत्र होगा। तुम्हारी पत्नी एक वर्षतक सत्य बोले, पवित्रतापूर्वक रहे, जीवोंपर दया करे, दीनोंको दान दे और केवल एक समय भोजन करे तो पुत्र धार्मिक उत्पन्न होगा।’

महात्मा तो फल देकर चले गये और ब्राह्मणने घर आकर फल अपनी पत्नीको दे दिया। परंतु आत्मदेवकी | देवीजी भी अद्भुत ही थीं। उन्होंने वह फल खाया नहीं, उलटे अपनी सखीके सामने रोने लगीं- ‘सखी! यदि मैं फल खा लूँ तो गर्भवती हो जाऊँगी, उससे मेरा पेट बढ़ जायगा, भूख कम हो जायगी, मैं दुर्बल हो जाऊँगी, फिर घरका कार्य कैसे होगा। कदाचित् गाँवमें डाकू आ गये तो गर्भिणी नारी कैसे भाग सकेगी। कहीं गर्भस्थ शिशु टेढ़ा हो गया तो मेरी मृत्यु ही हो जायगी। प्रसवमें भी सुना है महान् कष्ट होता है; मैं सुकुमारी उसे कैसे सहन कर सकूँगी। मेरे असमर्थ होनेपर मेरी ननद मेरा चुरा लेगी। सत्य, शौचादि नियमोंका पालन भी मेरे लिये अशक्य ही है। पुत्रके लालन पालनमें भी स्त्रीको बड़ा दुःख होता है। मेरी समझसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्री ही सुखी है।’ इस प्रकार कुतर्क करके ब्राह्मण-पत्नीने फल नहीं खाया।कुछ दिनों बाद ब्राह्मण-पत्नीकी छोटी बहिन उसके पास आयी, ब्राह्मणीने सब बातें उसे बताकर कहा “बहिन! ऐसी दशामें मैं क्या करूँ ?’

उसकी बहिनने कहा- ‘चिन्ता मत करो। मैं गर्भवती हूँ, बच्चा होनेपर उसे तुम्हें दे दूँगी। तुम मेरे पतिको धन दे देना, इससे वह तुम्हें बालक दे देंगे। तबतक तुम गर्भवतीके समान घरमें गुप्तरूपसे रहो। लोगों में मैं प्रसिद्ध कर दूंगी कि छः महीनेका होकर मेरा पुत्र मर गया। तुम्हारे घर प्रतिदिन आकर मैं तुम्हारे पुत्रका पालन-पोषण करूँगी। यह फल तो परीक्षाके लिये गायको दे दो।’

ब्राह्मण पत्नीने फल तो गायको दे दिया और पतिसे कह दिया- ‘मैंने फल खा लिया।’ समयपर उसकी बहिनको पुत्र हुआ। गुप्तरूपसे उस बहिनके पतिने बालक लाकर ब्राह्मण पत्नीको दे दिया। ब्राह्मणीने पतिको बताया-‘बड़ी सरलतासे पुत्र हो गया।’ ब्राह्मणके आनन्दका क्या ठिकाना। बड़ी धूम-धामसे पुत्रोत्सव मनाया जाने लगा। ब्राह्मणने उस बालकका नाम माताके नामपर धुन्धकारी रखा।

कुछ दिनोंके बाद गायने भी एक मानव शिशुको जन्म दिया। लोगोंको इससे बड़ा कुतूहल हुआ। यह बालक बहुत ही सुन्दर तेजस्वी था किंतु उसके कान गायके समान थे। ब्राह्मणने उस बालकके भी संस्कार कराये और उसका नाम गोकर्ण रखा।

बड़े होनेपर बालक गोकर्ण तो विनम्र, सदाचारी विद्वान् और धार्मिक हुए किंतु धुन्धकारी महान् दुष्ट हुआ वह खान तथा दूसरी पवित्रताकी क्रियाओंसे दूर ही रहता था, अखाद्य पदार्थ उसे प्रिय थे, अत्यन्त क्रोधी था, बायें हाथसे भोजन करता था, चोर था, सबसे अकारण द्वेष रखता था, छोटे बच्चोंको उठाकर कुएँमें फेंक देता था, हत्यारा था, हाथमें सदा शस्त्र रखता था, दीनों और अंधोंको सदा पीड़ा देता रहता था, चाण्डालोंके साथ हाथमें रस्सी और साथमें कुत्ते लिये घूमा करता था। वेश्यागामी बनकर उसने सब पैतृक सम्पत्ति नष्टकर दी और माता-पिताको पीटकर घरके बर्तन भी बेचनेको ले जाने लगा।

अब आत्मदेवको पुत्रके उत्पातका दुःख असा गया। वे दुखी होकर आत्मघात करनेको उद्यत हो परंतु गोकर्णने उन्हें समझाया कि ‘यह संसार ही है। यहाँ सुख है नहीं। सुख तो भगवान्‌का भजन करने ही है।’ गये। असार
गोकर्णके उपदेशको स्वीकार करके आत्मदेव वनमें चले गये। वहाँ भगवद्भक्तिमें उन्होंने मन लगाया, | इससे अन्तमें उन्हें भगवल्लोककी प्राप्ति हुई। इधर रखें। धुन्धकारीने माताको नित्य पीटना प्रारम्भ किया कि ‘धन कहाँ छिपाकर रखा है, बता!’ इस नित्यकी मारसे व्याकुल होकर ब्राह्मणीने कुएँ में कूदकर आत्मघात कर लिया। स्वभावसे विरक्त गोकर्ण तीर्थयात्रा करने चले गये। अब तो धुन्धकारीको स्वतन्त्रता हो गयी। पाँच वेश्याएँ उसने घरमें ही टिका लीं। चोरी, डकैती, जुआ आदिसे उनका पोषण करने लगा।

एक बार अपने कुकर्मोंसे धुन्धकारीने बहुत-सा धन एकत्र कर लिया। धनराशि देखकर वेश्याओंक मनमें लोभ आया। उन्होंने परस्पर सलाह करके एक रात में सोते हुए धुन्धकारीको रस्सियोंसे बाँध दिया और उसके मुखपर जलते अङ्गार रखकर उसे मार डाला। | फिर उसका शव गड्ढा खोदकर गाड़ दिया और सब धन लेकर वे चली गयीं।

मरकर धुन्धकारी प्रेत हुआ। तीर्थयात्रा करके जब गोकर्ण लौटे और रात्रिमें अपने घरमें सोये, तब नाना वेशोंमें प्रेत बना धुन्धकारी उन्हें डरानेका प्रयत्न करने लगा। गोकर्णकी कृपासे वह बोलनेमें समर्थ हुआ, उसके मुखसे उसकी दुर्गतिका वृत्त जानकर गोकर्णने उसे इस दुर्दशासे मुक्त करनेका वचन दिया और अन्तमें श्रीमद्भागवतका सप्ताह सुनाकर उसे प्रेतत्वसे मुक्त किया।

-सु0 सिं0

(पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवतमाहात्म्य 4-5)

किसी समय तुङ्गभद्रा नदीके किनारे एक उत्तम नगर था। वहाँ आत्मदेव नामके एक सदाचारी, कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नीका नाम था धुन्धुली। वह सुन्दरी थी, सत्कुलोत्पन्न थी, घरका कार्य करनेमें निपुण थी किंतु बहुत बोलनेवाली, कृपण, कलहप्रिय और दूसरोंके झगड़ोंमें आनन्द लेनेवाली थी। आत्मदेव अपनी पत्नीके साथ संतुष्ट थे; किंतु उन्हें इस बातका बड़ा दुःख था कि उनके कोई संतान नहीं है। उन्होंने दान पुण्यमें अपनी सम्पत्तिका आधा भाग व्यय भी किया किंतु कोई संतति नहीं हुई। अन्तमें दुखी होकर उन्होंने देहत्यागका निश्चय कर लिया और एक दिन चुपचाप बनमें चले गये वनमें प्यास लगनेपर एक सरोवरसे जल पीकर वे बैठे थे कि वहीं एक संन्यासी आ गये। उन्हें जल पीकर स्थिर बैठे देख ब्राह्मण आत्मदेव उनके समीप पहुँचे और उनके चरणोंपर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे।
संन्यासी महात्माके पूछनेपर आत्मदेवने अपने कटकी बात बतलायी और पुत्र प्राप्तिका उपाय पूछा। दैवज्ञ संन्यासीने योगबलसे उनकी भाग्य रेखा देखकर बताया- ‘तुम्हारे प्रारब्धमें सात जन्मोंतक पुत्र नहीं है। पुत्रप्रासिके मोहको छोड़ दो। यह मोह अज्ञानसे ही है। देखो! पुत्रके कारण महाराज सगर और राजा अङ्गको भी अत्यन्त दुःख भोगना पड़ा है सुख तो मोहको छोड़कर भगवान्का भजन करनेमें ही है।’ परंतु ब्राह्मण तो संतानकी इच्छासे मोहान्ध हो रहे थे। उन्होंने कहा- ‘यदि आपने पुत्रप्राप्तिका उपाय नबताया तो मैं यहीं आपके सामने ही प्राण त्याग दूँगा ।’ अन्तमें विवश होकर महात्माने ब्राह्मणको एक फल देकर कहा- ‘क्या किया जाय, तुम्हारा दुराग्रह बलवान् है; किंतु पुत्रसे तुम्हें सुख नहीं होगा। क्योंकि प्रारब्धके विपरीत हठ करनेसे कष्ट ही मिलता है। अच्छा, यह फल ले जाकर अपनी पत्नीको खिला दो, इससे उसे पुत्र होगा। तुम्हारी पत्नी एक वर्षतक सत्य बोले, पवित्रतापूर्वक रहे, जीवोंपर दया करे, दीनोंको दान दे और केवल एक समय भोजन करे तो पुत्र धार्मिक उत्पन्न होगा।’
महात्मा तो फल देकर चले गये और ब्राह्मणने घर आकर फल अपनी पत्नीको दे दिया। परंतु आत्मदेवकी | देवीजी भी अद्भुत ही थीं। उन्होंने वह फल खाया नहीं, उलटे अपनी सखीके सामने रोने लगीं- ‘सखी! यदि मैं फल खा लूँ तो गर्भवती हो जाऊँगी, उससे मेरा पेट बढ़ जायगा, भूख कम हो जायगी, मैं दुर्बल हो जाऊँगी, फिर घरका कार्य कैसे होगा। कदाचित् गाँवमें डाकू आ गये तो गर्भिणी नारी कैसे भाग सकेगी। कहीं गर्भस्थ शिशु टेढ़ा हो गया तो मेरी मृत्यु ही हो जायगी। प्रसवमें भी सुना है महान् कष्ट होता है; मैं सुकुमारी उसे कैसे सहन कर सकूँगी। मेरे असमर्थ होनेपर मेरी ननद मेरा चुरा लेगी। सत्य, शौचादि नियमोंका पालन भी मेरे लिये अशक्य ही है। पुत्रके लालन पालनमें भी स्त्रीको बड़ा दुःख होता है। मेरी समझसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्री ही सुखी है।’ इस प्रकार कुतर्क करके ब्राह्मण-पत्नीने फल नहीं खाया।कुछ दिनों बाद ब्राह्मण-पत्नीकी छोटी बहिन उसके पास आयी, ब्राह्मणीने सब बातें उसे बताकर कहा “बहिन! ऐसी दशामें मैं क्या करूँ ?’
उसकी बहिनने कहा- ‘चिन्ता मत करो। मैं गर्भवती हूँ, बच्चा होनेपर उसे तुम्हें दे दूँगी। तुम मेरे पतिको धन दे देना, इससे वह तुम्हें बालक दे देंगे। तबतक तुम गर्भवतीके समान घरमें गुप्तरूपसे रहो। लोगों में मैं प्रसिद्ध कर दूंगी कि छः महीनेका होकर मेरा पुत्र मर गया। तुम्हारे घर प्रतिदिन आकर मैं तुम्हारे पुत्रका पालन-पोषण करूँगी। यह फल तो परीक्षाके लिये गायको दे दो।’
ब्राह्मण पत्नीने फल तो गायको दे दिया और पतिसे कह दिया- ‘मैंने फल खा लिया।’ समयपर उसकी बहिनको पुत्र हुआ। गुप्तरूपसे उस बहिनके पतिने बालक लाकर ब्राह्मण पत्नीको दे दिया। ब्राह्मणीने पतिको बताया-‘बड़ी सरलतासे पुत्र हो गया।’ ब्राह्मणके आनन्दका क्या ठिकाना। बड़ी धूम-धामसे पुत्रोत्सव मनाया जाने लगा। ब्राह्मणने उस बालकका नाम माताके नामपर धुन्धकारी रखा।
कुछ दिनोंके बाद गायने भी एक मानव शिशुको जन्म दिया। लोगोंको इससे बड़ा कुतूहल हुआ। यह बालक बहुत ही सुन्दर तेजस्वी था किंतु उसके कान गायके समान थे। ब्राह्मणने उस बालकके भी संस्कार कराये और उसका नाम गोकर्ण रखा।
बड़े होनेपर बालक गोकर्ण तो विनम्र, सदाचारी विद्वान् और धार्मिक हुए किंतु धुन्धकारी महान् दुष्ट हुआ वह खान तथा दूसरी पवित्रताकी क्रियाओंसे दूर ही रहता था, अखाद्य पदार्थ उसे प्रिय थे, अत्यन्त क्रोधी था, बायें हाथसे भोजन करता था, चोर था, सबसे अकारण द्वेष रखता था, छोटे बच्चोंको उठाकर कुएँमें फेंक देता था, हत्यारा था, हाथमें सदा शस्त्र रखता था, दीनों और अंधोंको सदा पीड़ा देता रहता था, चाण्डालोंके साथ हाथमें रस्सी और साथमें कुत्ते लिये घूमा करता था। वेश्यागामी बनकर उसने सब पैतृक सम्पत्ति नष्टकर दी और माता-पिताको पीटकर घरके बर्तन भी बेचनेको ले जाने लगा।
अब आत्मदेवको पुत्रके उत्पातका दुःख असा गया। वे दुखी होकर आत्मघात करनेको उद्यत हो परंतु गोकर्णने उन्हें समझाया कि ‘यह संसार ही है। यहाँ सुख है नहीं। सुख तो भगवान्‌का भजन करने ही है।’ गये। असार
गोकर्णके उपदेशको स्वीकार करके आत्मदेव वनमें चले गये। वहाँ भगवद्भक्तिमें उन्होंने मन लगाया, | इससे अन्तमें उन्हें भगवल्लोककी प्राप्ति हुई। इधर रखें। धुन्धकारीने माताको नित्य पीटना प्रारम्भ किया कि ‘धन कहाँ छिपाकर रखा है, बता!’ इस नित्यकी मारसे व्याकुल होकर ब्राह्मणीने कुएँ में कूदकर आत्मघात कर लिया। स्वभावसे विरक्त गोकर्ण तीर्थयात्रा करने चले गये। अब तो धुन्धकारीको स्वतन्त्रता हो गयी। पाँच वेश्याएँ उसने घरमें ही टिका लीं। चोरी, डकैती, जुआ आदिसे उनका पोषण करने लगा।
एक बार अपने कुकर्मोंसे धुन्धकारीने बहुत-सा धन एकत्र कर लिया। धनराशि देखकर वेश्याओंक मनमें लोभ आया। उन्होंने परस्पर सलाह करके एक रात में सोते हुए धुन्धकारीको रस्सियोंसे बाँध दिया और उसके मुखपर जलते अङ्गार रखकर उसे मार डाला। | फिर उसका शव गड्ढा खोदकर गाड़ दिया और सब धन लेकर वे चली गयीं।
मरकर धुन्धकारी प्रेत हुआ। तीर्थयात्रा करके जब गोकर्ण लौटे और रात्रिमें अपने घरमें सोये, तब नाना वेशोंमें प्रेत बना धुन्धकारी उन्हें डरानेका प्रयत्न करने लगा। गोकर्णकी कृपासे वह बोलनेमें समर्थ हुआ, उसके मुखसे उसकी दुर्गतिका वृत्त जानकर गोकर्णने उसे इस दुर्दशासे मुक्त करनेका वचन दिया और अन्तमें श्रीमद्भागवतका सप्ताह सुनाकर उसे प्रेतत्वसे मुक्त किया।
-सु0 सिं0
(पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवतमाहात्म्य 4-5)

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