सच्ची माँग

shivratri shiv shiva

‘सिन्धुका वेग बढ़ रहा है, महाराज! सेनाका पार उतरना कठिन ही है।’ सेनापतिने काश्मीरनरेश ललितादित्यका अभिवादन किया।

पर हमें पञ्चनद देशमें अपना बल बढ़ाना ही है। काश्मीरके धर्मसिंहासनका व्रत पूरा ही करना है कि आसेतुहिमाचल प्रदेशमें धर्मकी भावना जाग्रत् हो, जनता सत्यका पालन करे और सर्वत्र न्यायकी विजय हो। इसी कार्यके लिये हम काश्मीरसे इतनी दूर आ गये हैं।’ महाराज ललितादित्य शिविरसे बाहर निकलकर सिन्धुके तटपर टहलने लगे। पटहध्वनिसे आकाश गूँज उठा, सैनिकोंने अपने नरेशके प्रति सम्मान प्रकट किया।

‘आपके सत्कार्यमें विलम्ब नहीं होगा, महाराज! मैंने आजीवन आपका नमक खाया है। काश्मीरकी सेना सिन्धु नदीको पार करेगी ही।’ महामन्त्री चिंकुणके शब्दोंसे ललितादित्यके ललाट-देशका पसीना सूख गया। वे आश्वस्त थे।’प्रकृतिपर विजय करना हमारे वशकी बात नहीं है, चिंकुण सिन्धुकी उमड़ती जलधारामें हमारे सैनिकोंका पतातक न लगेगा।’ महाराज ललितादित्यका संशय था।

‘आइये, महाराज!’ चिंकुणने सैनिक बेड़ेपर महाराज ललितादित्यसे आसन ग्रहण करनेकी प्रार्थना की। वे मध्य धारामें पहुँच गये। चिंकुणने मध्यधारामें एक परम दीप्तिमयी मणि डाल दी। मणिके स्पर्शसे अथाह जल दो भागों में बँट गया। सरिताका वेग नियन्त्रित होनेपर सेना पार उतर गयी। महाराज प्रसन्न थे। ‘और यह दूसरी मणि है।’ चिंकुणने मध्यधारामें उसे डाल दिया और उसकी सहायतासे पहली मणि निकाल ली। सिन्धुका प्रवाह पहले जैसा हो गया। ललितादित्य आश्चर्यचकित थे।

‘आजतक मैंने पृथ्वीपर भगवान्‌को छोड़कर किसी दूसरेसे याचना नहीं की। दोनों मणियाँ मुझे दे दो, चिंकुण।’ महाराजके इन शब्दोंसे महामन्त्रीके रोंगटे खड़े हो गये।’राजकोषमें असंख्य रत्न हैं, देव! उसमें इन्हें महत्त्व ही क्या मिलेगा? मेरे जैसे साधारण व्यक्तिके पास रहनेसे ही इनका मूल्य आँका जा सकता है। चन्द्रकान्त मणि जबतक समुद्रसे दूर है तबतक उसके झरनेका महत्त्व है, रत्नाकरमें विलीन होनेपर उसकी कीमत घट जाती है।’ चिंकुणका निवेदन था।

‘यदि तुम यह समझते हो कि मेरे पास इन मणियोंसे भी उत्कृष्ट कोई वस्तु है तो उसके बदले इन्हें दे दो। ललितादित्यने मन्त्रीको अभय दिया।’ ‘महाराज! मैं आपके पवित्र आदेशसे धन्य हो गया। मुझे भगवान् बुद्धकी वह प्रतिमा दे दी जायजिसको मगधनरेशने आपके पास उपहारस्वरूप भेजा है । भवसागर से पार उतरनेके लिये वही मेरा परम प्रिय साधन है। लौकिक जलसंतरणमें सहायक इन मणियोंकी शोभा आपके ही राजकोषमें बढ़ेगी।’ महामन्त्रीने प्रार्थना की।

‘सच्ची माँग तो यही है, चिंकुण । सत्य वस्तुकी प्राप्तिकी योग्यता तो तुममें ही है। तुम जीत गये ।’ महाराजने पराजय स्वीकार की। चिंकुणको वैराग्य हो गया। भगवान् बुद्धकी प्रतिमा लेकर उन्होंने अपनी जन्मभूमि तुषारदेशकी ओर प्रस्थान किया।

– रा0 श्री0 (राजतरङ्गिणी)

‘सिन्धुका वेग बढ़ रहा है, महाराज! सेनाका पार उतरना कठिन ही है।’ सेनापतिने काश्मीरनरेश ललितादित्यका अभिवादन किया।
पर हमें पञ्चनद देशमें अपना बल बढ़ाना ही है। काश्मीरके धर्मसिंहासनका व्रत पूरा ही करना है कि आसेतुहिमाचल प्रदेशमें धर्मकी भावना जाग्रत् हो, जनता सत्यका पालन करे और सर्वत्र न्यायकी विजय हो। इसी कार्यके लिये हम काश्मीरसे इतनी दूर आ गये हैं।’ महाराज ललितादित्य शिविरसे बाहर निकलकर सिन्धुके तटपर टहलने लगे। पटहध्वनिसे आकाश गूँज उठा, सैनिकोंने अपने नरेशके प्रति सम्मान प्रकट किया।
‘आपके सत्कार्यमें विलम्ब नहीं होगा, महाराज! मैंने आजीवन आपका नमक खाया है। काश्मीरकी सेना सिन्धु नदीको पार करेगी ही।’ महामन्त्री चिंकुणके शब्दोंसे ललितादित्यके ललाट-देशका पसीना सूख गया। वे आश्वस्त थे।’प्रकृतिपर विजय करना हमारे वशकी बात नहीं है, चिंकुण सिन्धुकी उमड़ती जलधारामें हमारे सैनिकोंका पतातक न लगेगा।’ महाराज ललितादित्यका संशय था।
‘आइये, महाराज!’ चिंकुणने सैनिक बेड़ेपर महाराज ललितादित्यसे आसन ग्रहण करनेकी प्रार्थना की। वे मध्य धारामें पहुँच गये। चिंकुणने मध्यधारामें एक परम दीप्तिमयी मणि डाल दी। मणिके स्पर्शसे अथाह जल दो भागों में बँट गया। सरिताका वेग नियन्त्रित होनेपर सेना पार उतर गयी। महाराज प्रसन्न थे। ‘और यह दूसरी मणि है।’ चिंकुणने मध्यधारामें उसे डाल दिया और उसकी सहायतासे पहली मणि निकाल ली। सिन्धुका प्रवाह पहले जैसा हो गया। ललितादित्य आश्चर्यचकित थे।
‘आजतक मैंने पृथ्वीपर भगवान्‌को छोड़कर किसी दूसरेसे याचना नहीं की। दोनों मणियाँ मुझे दे दो, चिंकुण।’ महाराजके इन शब्दोंसे महामन्त्रीके रोंगटे खड़े हो गये।’राजकोषमें असंख्य रत्न हैं, देव! उसमें इन्हें महत्त्व ही क्या मिलेगा? मेरे जैसे साधारण व्यक्तिके पास रहनेसे ही इनका मूल्य आँका जा सकता है। चन्द्रकान्त मणि जबतक समुद्रसे दूर है तबतक उसके झरनेका महत्त्व है, रत्नाकरमें विलीन होनेपर उसकी कीमत घट जाती है।’ चिंकुणका निवेदन था।
‘यदि तुम यह समझते हो कि मेरे पास इन मणियोंसे भी उत्कृष्ट कोई वस्तु है तो उसके बदले इन्हें दे दो। ललितादित्यने मन्त्रीको अभय दिया।’ ‘महाराज! मैं आपके पवित्र आदेशसे धन्य हो गया। मुझे भगवान् बुद्धकी वह प्रतिमा दे दी जायजिसको मगधनरेशने आपके पास उपहारस्वरूप भेजा है । भवसागर से पार उतरनेके लिये वही मेरा परम प्रिय साधन है। लौकिक जलसंतरणमें सहायक इन मणियोंकी शोभा आपके ही राजकोषमें बढ़ेगी।’ महामन्त्रीने प्रार्थना की।
‘सच्ची माँग तो यही है, चिंकुण । सत्य वस्तुकी प्राप्तिकी योग्यता तो तुममें ही है। तुम जीत गये ।’ महाराजने पराजय स्वीकार की। चिंकुणको वैराग्य हो गया। भगवान् बुद्धकी प्रतिमा लेकर उन्होंने अपनी जन्मभूमि तुषारदेशकी ओर प्रस्थान किया।
– रा0 श्री0 (राजतरङ्गिणी)

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