दम्भ पतनका कारण

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दम्भ पतनका कारण

रावणने ऐसी तपस्या की थी, जो सभीके लिये दुःसह थी। महादेवजीको तपस्या बहुत प्रिय है। वे उसकी तपस्यासे जब बहुत अधिक प्रसन्न हो गये, तब उन्होंने रावणको ऐसे-ऐसे वरदान दिये, जो अन्य सबके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं। रावणने भगवान् सदाशिवसे ज्ञान, विज्ञान, संग्राममें अजेयता तथा शिवजीकी अपेक्षा दुगुने सिर प्राप्त किये। महादेवजीके पाँच मुख हैं। इसलिये उनसे द्विगुण मुख पाकर रावण दशमुख हुआ। उसने देवताओं, ऋषियों और पितरोंको भी सर्वथा परास्त करके उन सबपर अपनी प्रभुता स्थापित की। भगवान् महेश्वरके प्रसादसे वह सबसे अधिक प्रतापी हुआ। महादेवजीने उसे त्रिकूटपर्वतके समीपवर्ती प्रदेशका स्वामी बना दिया।
शिवके प्रसादसे रावणने तीनों लोकोंको वशमें कर लिया। देवताओंको बड़ी चिन्ता हुई। वे सब मिलकर शिवलोकमें गये और दरवाजेपर किंकरोंकी भाँति खड़े हो गये। उस समय नन्दी, जिनका मुख वानरके समान है. देवताओंसे वार्तालाप करने लगे। देवताओंने नन्दीको प्रणाम करके पूछा- ‘आपका मुख वानरके समान क्यों है?’ नन्दीने कहा-‘एक समय रावण यहाँ आया और अपने पराक्रमकी बातें बहुत बढ़-चढ़कर कहने लगा, उस समय मैंने उससे कहा—’भैया! तुम भी शिवपूजक हो और मैं भी, अत: हम दोनों समान हैं, फिर मेरे सामने यह व्यर्थ डींग क्यों मारते हो ?’ मेरी बात सुनकर रावणने तुम्हीं लोगोंकी भाँति मेरे वानर मुख होनेका कारण पूछा। उत्तरमें मैंने निवेदन किया कि ‘यह मेरी शिवोपासनाका मुँहमाँगा फल है। भगवान् शिव मुझे अपना सारूप्य दे रहे थे, किंतु मैंने वह नहीं स्वीकार किया। अपने लिये वानरके समान ही मुख माँगा। भगवान् बड़े दयालु हैं। उन्होंने कृपापूर्वक मुझे मेरी माँगी हुई वस्तु दे दी। जो अभिमानशून्य हैं, जिनमें दम्भका अभाव है तथा जो परिग्रहसे दूर रहनेवाले हैं, उन्हें भगवान् शंकरका प्रिय समझना चाहिये। इसके विपरीत जो अभिमानी, दम्भी और परिग्रही हैं, वे शिवको कल्याणमयी कृपासे वंचित रहते हैं।’ रावण मेरे साथ पूर्वोक्त बातचीतमें अपने तपोबलका बखान करने लगा। उसने कहा-‘मैं बुद्धिमान् हूँ, मैंने भगवान् शिवसे दस मुख माँगे हैं। अधिक मुखोंसे शिवजीकी अद्भुत स्तुति की जा सकती है। तुम्हारे इस वानरतुल्य मुखसे क्या होगा? तुम्हें किसीने खोटी सलाह दी होगी; तुमने शंकरजीसे यह वानरका मुख व्यर्थ माँगा है।’ देवताओ! रावणका यह उपहासपूर्ण वचन सुनकर मैंने उसे शाप देते हुए कहा- ‘जब कोई महातपस्वी श्रेष्ठ मानव वानरोंके साथ मुझे आगे करके तुमपर आक्रमण करेगा, उस समय वह तुम्हें अवश्य मार डालेगा।’ इस प्रकार सारे संसारको रुलानेवाले रावणको मैंने शाप दे डाला। देवाधिदेव महादेवजी साक्षात् विष्णुरूप हैं, अतः आपलोग भगवान् विष्णुसे प्रार्थना करें।’
नन्दीकी यह बात सुनकर सब देवता मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वैकुण्ठमें आकर भगवान् विष्णुकी स्तुति की।
देवताओंके प्रार्थना करनेपर भूतभावन भगवान् वासुदेवने सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- ‘देवगण तुमलोग अपने प्रस्तावके अनुसार मेरी बात सुनो, नन्दीको आगे करके तुम सभी शीघ्रतापूर्वक वानर शरीरमें अवतार लो। मैं मायासे अपने स्वरूपको छिपाये हुए मनुष्यरूप होकर अयोध्या में राजा दशरथके घर प्रकट होऊँगा। तुम्हारे कार्यकी सिद्धिके लिये मेरे साथ ब्रह्मविद्या भी अवतार लेंगी। राजा जनकके घर साक्षात् ब्रह्मविद्या ही सीतारूपमें प्रकट होंगी। रावण भगवान् शिवका भक्त है। वह सदा साक्षात् शिवके ध्यानमें तत्पर रहता है। उसमें बड़ी भारी तपस्याका भी बल है। वह जब ब्रह्मविद्यारूप सीताको बलपूर्वक प्राप्त करना चाहेगा, उस समय वह दोनों स्थितियोंसे तत्काल भ्रष्ट हो जायगा। सीताके अन्वेषणमें तत्पर होकर वह न तो तपस्वी रह जायगा और न भक्त ही। जो अपनेको न दी हुई ब्रह्मविद्याका बलपूर्वक सेवन करना चाहता है, वह पुरुष धर्मसे परास्त होकर सदा सुगमतापूर्वक जीत लेनेयोग्य हो जाता है।’
इस प्रकारकी योजना बनाकर कपिरूपधारी देवताओंको साथ लेकर श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण श्रीहरिने युद्ध करके रावणका वध किया। उसका दम्भ ही उसके विनाशका
कारण बना। [ स्कन्दपुराण ]

दम्भ पतनका कारण
रावणने ऐसी तपस्या की थी, जो सभीके लिये दुःसह थी। महादेवजीको तपस्या बहुत प्रिय है। वे उसकी तपस्यासे जब बहुत अधिक प्रसन्न हो गये, तब उन्होंने रावणको ऐसे-ऐसे वरदान दिये, जो अन्य सबके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं। रावणने भगवान् सदाशिवसे ज्ञान, विज्ञान, संग्राममें अजेयता तथा शिवजीकी अपेक्षा दुगुने सिर प्राप्त किये। महादेवजीके पाँच मुख हैं। इसलिये उनसे द्विगुण मुख पाकर रावण दशमुख हुआ। उसने देवताओं, ऋषियों और पितरोंको भी सर्वथा परास्त करके उन सबपर अपनी प्रभुता स्थापित की। भगवान् महेश्वरके प्रसादसे वह सबसे अधिक प्रतापी हुआ। महादेवजीने उसे त्रिकूटपर्वतके समीपवर्ती प्रदेशका स्वामी बना दिया।
शिवके प्रसादसे रावणने तीनों लोकोंको वशमें कर लिया। देवताओंको बड़ी चिन्ता हुई। वे सब मिलकर शिवलोकमें गये और दरवाजेपर किंकरोंकी भाँति खड़े हो गये। उस समय नन्दी, जिनका मुख वानरके समान है. देवताओंसे वार्तालाप करने लगे। देवताओंने नन्दीको प्रणाम करके पूछा- ‘आपका मुख वानरके समान क्यों है?’ नन्दीने कहा-‘एक समय रावण यहाँ आया और अपने पराक्रमकी बातें बहुत बढ़-चढ़कर कहने लगा, उस समय मैंने उससे कहा—’भैया! तुम भी शिवपूजक हो और मैं भी, अत: हम दोनों समान हैं, फिर मेरे सामने यह व्यर्थ डींग क्यों मारते हो ?’ मेरी बात सुनकर रावणने तुम्हीं लोगोंकी भाँति मेरे वानर मुख होनेका कारण पूछा। उत्तरमें मैंने निवेदन किया कि ‘यह मेरी शिवोपासनाका मुँहमाँगा फल है। भगवान् शिव मुझे अपना सारूप्य दे रहे थे, किंतु मैंने वह नहीं स्वीकार किया। अपने लिये वानरके समान ही मुख माँगा। भगवान् बड़े दयालु हैं। उन्होंने कृपापूर्वक मुझे मेरी माँगी हुई वस्तु दे दी। जो अभिमानशून्य हैं, जिनमें दम्भका अभाव है तथा जो परिग्रहसे दूर रहनेवाले हैं, उन्हें भगवान् शंकरका प्रिय समझना चाहिये। इसके विपरीत जो अभिमानी, दम्भी और परिग्रही हैं, वे शिवको कल्याणमयी कृपासे वंचित रहते हैं।’ रावण मेरे साथ पूर्वोक्त बातचीतमें अपने तपोबलका बखान करने लगा। उसने कहा-‘मैं बुद्धिमान् हूँ, मैंने भगवान् शिवसे दस मुख माँगे हैं। अधिक मुखोंसे शिवजीकी अद्भुत स्तुति की जा सकती है। तुम्हारे इस वानरतुल्य मुखसे क्या होगा? तुम्हें किसीने खोटी सलाह दी होगी; तुमने शंकरजीसे यह वानरका मुख व्यर्थ माँगा है।’ देवताओ! रावणका यह उपहासपूर्ण वचन सुनकर मैंने उसे शाप देते हुए कहा- ‘जब कोई महातपस्वी श्रेष्ठ मानव वानरोंके साथ मुझे आगे करके तुमपर आक्रमण करेगा, उस समय वह तुम्हें अवश्य मार डालेगा।’ इस प्रकार सारे संसारको रुलानेवाले रावणको मैंने शाप दे डाला। देवाधिदेव महादेवजी साक्षात् विष्णुरूप हैं, अतः आपलोग भगवान् विष्णुसे प्रार्थना करें।’
नन्दीकी यह बात सुनकर सब देवता मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वैकुण्ठमें आकर भगवान् विष्णुकी स्तुति की।
देवताओंके प्रार्थना करनेपर भूतभावन भगवान् वासुदेवने सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- ‘देवगण तुमलोग अपने प्रस्तावके अनुसार मेरी बात सुनो, नन्दीको आगे करके तुम सभी शीघ्रतापूर्वक वानर शरीरमें अवतार लो। मैं मायासे अपने स्वरूपको छिपाये हुए मनुष्यरूप होकर अयोध्या में राजा दशरथके घर प्रकट होऊँगा। तुम्हारे कार्यकी सिद्धिके लिये मेरे साथ ब्रह्मविद्या भी अवतार लेंगी। राजा जनकके घर साक्षात् ब्रह्मविद्या ही सीतारूपमें प्रकट होंगी। रावण भगवान् शिवका भक्त है। वह सदा साक्षात् शिवके ध्यानमें तत्पर रहता है। उसमें बड़ी भारी तपस्याका भी बल है। वह जब ब्रह्मविद्यारूप सीताको बलपूर्वक प्राप्त करना चाहेगा, उस समय वह दोनों स्थितियोंसे तत्काल भ्रष्ट हो जायगा। सीताके अन्वेषणमें तत्पर होकर वह न तो तपस्वी रह जायगा और न भक्त ही। जो अपनेको न दी हुई ब्रह्मविद्याका बलपूर्वक सेवन करना चाहता है, वह पुरुष धर्मसे परास्त होकर सदा सुगमतापूर्वक जीत लेनेयोग्य हो जाता है।’
इस प्रकारकी योजना बनाकर कपिरूपधारी देवताओंको साथ लेकर श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण श्रीहरिने युद्ध करके रावणका वध किया। उसका दम्भ ही उसके विनाशका
कारण बना। [ स्कन्दपुराण ]

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