सदाचारके उल्लंघनसे पतन

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सदाचारके उल्लंघनसे पतन

पाण्ड्यदेशमें वज्रांगद नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वे बड़े धर्मात्मा, न्यायवेत्ता, शिवपूजापरायण, जितेन्द्रिय, गम्भीर, उदार, क्षमाशील, शान्त, बुद्धिमान्, एकपत्नीव्रती और पुण्यात्मा थे। राजा वज्रांगद शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ थे और शत्रुओंको जीतकर समूची पृथ्वीका शासन करते थे। एक दिन घोड़ेपर सवार हो वे शिकार खेलनेके लिये निकले और अरुणाचलके दुर्गम वनमें गये। उन्होंने वहाँ किसी कस्तूरी मृगको देखा। उसके शरीरसे सब ओर बहुत सुगन्ध फैल रही थी। उसे देखते ही राजाने कौतूहलवश उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया। मृग वायु और मनके समान वेगसे भागा और अरुणाचलपर्वतके चारों ओर चक्कर लगाने लगा। तब अधिक परिश्रम होनेके कारण राजा कान्तिहीन होकर घोड़ेसे गिर पड़े। उस समय मध्याह्नकालीन सूर्यके प्रखर तापसे उन्हें अत्यन्त पीड़ा हुई। वे ग्रहसे गृहीत हुएकी भाँति क्षणभरके लिये अपने-आपकी भी सुध-बुध खो बैठे थे। तत्पश्चात् उन्होंने सोचा- ‘मेरी शक्ति और धैर्यका यह अकारण ह्रास कहाँसे हो गया? वह हृष्ट-पुष्ट मृग मुझे इस पर्वतपर छोड़कर कहाँ चला गया ?’ राजा जब इस प्रकारकी चिन्तासे व्याकुल और अज्ञानसे दुखी हो रहे थे, उसी समय आकाश सहसा विद्युत्पुंजसे व्याप्त सा दिखायी दिया। उनके देखते-देखते घोड़े और मृगने तिर्यग् (पशु) योनिका शरीर त्यागकर क्षणभरमें आकाशचारी विद्याधरका रूप धारण कर लिया। उनके मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल, कण्ठमें हार और बाँहोंमें भुजबन्ध शोभा पा रहे थे। मृग और अश्व दोनों ही रेशमी धोती और दिव्य पुष्पोंकी मालाएँ धारण करके शोभायमान हो रहे थे।
यह सब देखकर राजाका चित्त आश्चर्यचकित हो उठा था; तब वे दोनों विद्याधर बोले- ‘राजन् ! विषाद करनेकी आवश्यकता नहीं। आपको मालूम होना चाहिये, हम दोनों भगवान् अरुणाचलेश्वरके प्रभावसे इस उत्तम दशाको प्राप्त हुए हैं।’ उनकी इस बातसे राजाको कुछ आश्वासन-सा मिला। तब वे हाथ जोड़कर उन दोनोंसे विनयपूर्वक बोले-‘आप दोनों कौन हैं ? मेरा यह पराभव किस कारणसे हुआ है ? आप दोनों कल्याणकारी पुरुष हैं, अतः मुझे मेरी पूछी
हुई बातें बताइये? क्योंकि संकटमें पड़े हुए व्यक्तिकी रक्षा करना महापुरुषोंका महान् गुण है।’
राजाके ऐसा प्रश्न करनेपर उन्होंने इस प्रकार कहा- ‘राजन्! हम दोनों पहले विद्याधरोंके राजा थे। हमारा नाम कलाधर और कान्तिशाली था। हममें वसन्त और कामदेवकी भाँति परस्पर बड़ी मित्रता थी। एक दिन मेरुगिरिके पार्श्वभागमें दुर्वासाके तपोवनमें, जहाँ मनसे भी पहुँचना अत्यन्त कठिन है, हम दोनों जा पहुँचे। वहाँ मुनिकी परम पवित्र पुष्पवाटिका थी, जो एक कोसतक फैली हुई थी। वह वाटिका शिवाराधनके काममें आती थी। मुनिकी वाटिका खिले हुए फूलोंसे बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। हम लोग फूल तोड़नेकी उत्कण्ठासे उस फुलवाड़ीमें घुस गये। उस रमणीय स्थानके प्रति प्रेम हो जानेसे हमारा मित्र यह कान्तिशाली गर्वसे फूल उठा और बारम्बार वहाँकी भूमिपर पैर पटकता हुआ इधर उधर विचरने लगा। मैं वहाँ पुष्पोंकी अतिशय सुगन्ध मोहित हो दुर्वासनावश विकसित पुष्पोंपर हाथ रख दिया करता था।
मेरे इस अपराधके कारण बिल्ववृक्षके नीचे
व्याघ्र चर्मके आसनपर बैठे हुए तपोराशि दुर्वासामुनि आगकी भाँति जल उठे और अपनी दृष्टिसे मानो हमें जला डालेंगे-इस प्रकार देखते हुए हमारे समीप आ गये। आकर हमें फटकारते हुए बोले-‘ओ पापियो! तुमलोगोंने सज्जनोचित सदाचारका उल्लंघन किया है और अत्यन्त अहंकारमें भरकर मेरे इस पवित्र तपोवनमें विचर रहे हो। मेरा यह उद्यान सब प्राणियोंका पोषण करनेवाला है। इसे अपने चरणोंके प्रहारसे दूषित करनेवाला यह पापी संसारमें घोड़ा हो जाय तथा दूसरेकी सवारी ढोनेके कारण कष्ट उठाता रहे तथा दूसरे जो अत्यन्त उग्र स्वभाववाले तुम फूलोंकी सुगन्धके प्रति लोभ रखकर आये हो, इसलिये कस्तूरीमृग होकर पर्वतकी कन्दरामें गिरो।’
‘इस प्रकार भयानक रोषसे वज्रके समान दुर्वासा मुनिका शाप प्राप्त होनेपर उसी क्षण हम दोनोंका गर्व गल गया और हम मुनिकी शरणमें गये। उनके चरणारविन्दोंको अपने हाथोंसे पकड़कर हमने प्रार्थना की-‘भगवन्! आपका यह शाप अमोघ है, अतः यह बताने की कृपा करें कि इसका अन्त कब होगा ?’
राजन् ! तब हम दोनोंको अत्यन्त दीन एवं दुखी देखकर मुनिके हृदयमें दयाका संचार हो आया। वे करुणाकी वर्षासे शीतलस्वभाव होकर बोले-‘अरे! तुम दोनों अब कभी खोटी बुद्धिका आश्रय लेकर ऐसे बर्ताव न करना। अरुणाचलकी परिक्रमा करनेसे तुम्हारे इस शापका निवारण होगा।
नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर मेरा मित्र कान्तिशाली काम्बोजदेशमें घोड़ा हुआ और आपकी सवारीमें आया। मैं भी कस्तूरी मृग होकर अपने ही शरीरसे उत्पन्न सुगन्धके मदसे उन्मत्त हो इस अरुणाचलपर विचरने लगा। धर्मात्मन्! आपने मृगयाके बहाने इस समय यहाँ आकर हम दोनोंसे अरुणाचलनाथकी परिक्रमा करवा दी। महाराज! आपके ही सम्बन्धसे हम इस पशुयोनिके बन्धनसे छूटकर अपने धामको प्राप्त हुए हैं।’ इस प्रकार सदाचारका उल्लंघन करनेके कारण विद्याधरोंका भी पतन हो जाता है, सामान्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? [ स्कन्दपुराण ]

सदाचारके उल्लंघनसे पतन
पाण्ड्यदेशमें वज्रांगद नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वे बड़े धर्मात्मा, न्यायवेत्ता, शिवपूजापरायण, जितेन्द्रिय, गम्भीर, उदार, क्षमाशील, शान्त, बुद्धिमान्, एकपत्नीव्रती और पुण्यात्मा थे। राजा वज्रांगद शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ थे और शत्रुओंको जीतकर समूची पृथ्वीका शासन करते थे। एक दिन घोड़ेपर सवार हो वे शिकार खेलनेके लिये निकले और अरुणाचलके दुर्गम वनमें गये। उन्होंने वहाँ किसी कस्तूरी मृगको देखा। उसके शरीरसे सब ओर बहुत सुगन्ध फैल रही थी। उसे देखते ही राजाने कौतूहलवश उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया। मृग वायु और मनके समान वेगसे भागा और अरुणाचलपर्वतके चारों ओर चक्कर लगाने लगा। तब अधिक परिश्रम होनेके कारण राजा कान्तिहीन होकर घोड़ेसे गिर पड़े। उस समय मध्याह्नकालीन सूर्यके प्रखर तापसे उन्हें अत्यन्त पीड़ा हुई। वे ग्रहसे गृहीत हुएकी भाँति क्षणभरके लिये अपने-आपकी भी सुध-बुध खो बैठे थे। तत्पश्चात् उन्होंने सोचा- ‘मेरी शक्ति और धैर्यका यह अकारण ह्रास कहाँसे हो गया? वह हृष्ट-पुष्ट मृग मुझे इस पर्वतपर छोड़कर कहाँ चला गया ?’ राजा जब इस प्रकारकी चिन्तासे व्याकुल और अज्ञानसे दुखी हो रहे थे, उसी समय आकाश सहसा विद्युत्पुंजसे व्याप्त सा दिखायी दिया। उनके देखते-देखते घोड़े और मृगने तिर्यग् (पशु) योनिका शरीर त्यागकर क्षणभरमें आकाशचारी विद्याधरका रूप धारण कर लिया। उनके मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल, कण्ठमें हार और बाँहोंमें भुजबन्ध शोभा पा रहे थे। मृग और अश्व दोनों ही रेशमी धोती और दिव्य पुष्पोंकी मालाएँ धारण करके शोभायमान हो रहे थे।
यह सब देखकर राजाका चित्त आश्चर्यचकित हो उठा था; तब वे दोनों विद्याधर बोले- ‘राजन् ! विषाद करनेकी आवश्यकता नहीं। आपको मालूम होना चाहिये, हम दोनों भगवान् अरुणाचलेश्वरके प्रभावसे इस उत्तम दशाको प्राप्त हुए हैं।’ उनकी इस बातसे राजाको कुछ आश्वासन-सा मिला। तब वे हाथ जोड़कर उन दोनोंसे विनयपूर्वक बोले-‘आप दोनों कौन हैं ? मेरा यह पराभव किस कारणसे हुआ है ? आप दोनों कल्याणकारी पुरुष हैं, अतः मुझे मेरी पूछी
हुई बातें बताइये? क्योंकि संकटमें पड़े हुए व्यक्तिकी रक्षा करना महापुरुषोंका महान् गुण है।’
राजाके ऐसा प्रश्न करनेपर उन्होंने इस प्रकार कहा- ‘राजन्! हम दोनों पहले विद्याधरोंके राजा थे। हमारा नाम कलाधर और कान्तिशाली था। हममें वसन्त और कामदेवकी भाँति परस्पर बड़ी मित्रता थी। एक दिन मेरुगिरिके पार्श्वभागमें दुर्वासाके तपोवनमें, जहाँ मनसे भी पहुँचना अत्यन्त कठिन है, हम दोनों जा पहुँचे। वहाँ मुनिकी परम पवित्र पुष्पवाटिका थी, जो एक कोसतक फैली हुई थी। वह वाटिका शिवाराधनके काममें आती थी। मुनिकी वाटिका खिले हुए फूलोंसे बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। हम लोग फूल तोड़नेकी उत्कण्ठासे उस फुलवाड़ीमें घुस गये। उस रमणीय स्थानके प्रति प्रेम हो जानेसे हमारा मित्र यह कान्तिशाली गर्वसे फूल उठा और बारम्बार वहाँकी भूमिपर पैर पटकता हुआ इधर उधर विचरने लगा। मैं वहाँ पुष्पोंकी अतिशय सुगन्ध मोहित हो दुर्वासनावश विकसित पुष्पोंपर हाथ रख दिया करता था।
मेरे इस अपराधके कारण बिल्ववृक्षके नीचे
व्याघ्र चर्मके आसनपर बैठे हुए तपोराशि दुर्वासामुनि आगकी भाँति जल उठे और अपनी दृष्टिसे मानो हमें जला डालेंगे-इस प्रकार देखते हुए हमारे समीप आ गये। आकर हमें फटकारते हुए बोले-‘ओ पापियो! तुमलोगोंने सज्जनोचित सदाचारका उल्लंघन किया है और अत्यन्त अहंकारमें भरकर मेरे इस पवित्र तपोवनमें विचर रहे हो। मेरा यह उद्यान सब प्राणियोंका पोषण करनेवाला है। इसे अपने चरणोंके प्रहारसे दूषित करनेवाला यह पापी संसारमें घोड़ा हो जाय तथा दूसरेकी सवारी ढोनेके कारण कष्ट उठाता रहे तथा दूसरे जो अत्यन्त उग्र स्वभाववाले तुम फूलोंकी सुगन्धके प्रति लोभ रखकर आये हो, इसलिये कस्तूरीमृग होकर पर्वतकी कन्दरामें गिरो।’
‘इस प्रकार भयानक रोषसे वज्रके समान दुर्वासा मुनिका शाप प्राप्त होनेपर उसी क्षण हम दोनोंका गर्व गल गया और हम मुनिकी शरणमें गये। उनके चरणारविन्दोंको अपने हाथोंसे पकड़कर हमने प्रार्थना की-‘भगवन्! आपका यह शाप अमोघ है, अतः यह बताने की कृपा करें कि इसका अन्त कब होगा ?’
राजन् ! तब हम दोनोंको अत्यन्त दीन एवं दुखी देखकर मुनिके हृदयमें दयाका संचार हो आया। वे करुणाकी वर्षासे शीतलस्वभाव होकर बोले-‘अरे! तुम दोनों अब कभी खोटी बुद्धिका आश्रय लेकर ऐसे बर्ताव न करना। अरुणाचलकी परिक्रमा करनेसे तुम्हारे इस शापका निवारण होगा।
नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर मेरा मित्र कान्तिशाली काम्बोजदेशमें घोड़ा हुआ और आपकी सवारीमें आया। मैं भी कस्तूरी मृग होकर अपने ही शरीरसे उत्पन्न सुगन्धके मदसे उन्मत्त हो इस अरुणाचलपर विचरने लगा। धर्मात्मन्! आपने मृगयाके बहाने इस समय यहाँ आकर हम दोनोंसे अरुणाचलनाथकी परिक्रमा करवा दी। महाराज! आपके ही सम्बन्धसे हम इस पशुयोनिके बन्धनसे छूटकर अपने धामको प्राप्त हुए हैं।’ इस प्रकार सदाचारका उल्लंघन करनेके कारण विद्याधरोंका भी पतन हो जाता है, सामान्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? [ स्कन्दपुराण ]

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