छलपूर्वक असत्य भाषण करनेसे नरक-दर्शन

india statue goddess

छलपूर्वक असत्य भाषण करनेसे नरक-दर्शन

धर्मराज युधिष्ठिरने स्वर्गमें जानेके पश्चात् देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभासे सम्पन्न हो देवता और साध्यगणोंके साथ एक दिव्य सिंहासनपर बैठकर सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा है। उसका ऐसा ऐश्वर्य देखकर युधिष्ठिर सहसा पीछेको लौट पड़े और उच्च स्वरसे कहने लगे-‘देवताओ! जिसके कारण हमने अपने समस्त सुहृदों और बन्धुओंका युद्धमें संहार कर डाला तथा जिसकी प्रेरणासे निरन्तर धर्मका आचरण करनेवाली हमारी पत्नी पांचालराजकुमारी द्रौपदीको भरी सभामें गुरुजनोंके सामने घसीटा गया, ऐसे दुर्योधनके साथ मैं इस स्वर्गलोकमें नहीं रहना चाहता।’ यह सुनकर नारदजी हँस पड़े और बोले ‘महाबाहो ! स्वर्गमें आनेपर मृत्युलोकका वैर-विरोध नहीं रहता, अतः तुम्हें महाराज दुर्योधनके विषयमें ऐसी बात कदापि नहीं कहनी चाहिये। स्वर्गलोकमें जितने श्रेष्ठ राजा रहते हैं, वे और समस्त देवता भी यहाँ राजा दुर्योधनका विशेष सम्मान करते हैं। यह सत्य है कि इन्होंने सदा ही तुमलोगोंको कष्ट पहुँचाया है, तथापि युद्धमें शरीरकी आहुति देकर ये वीरलोकको प्राप्त हुए हैं। अतः द्रौपदीको इनके द्वारा जो क्लेश प्राप्त हुआ है, उसे भूल जाओ और इनके साथ न्यायपूर्वक मिलो। यह स्वर्गलोक है, यहाँ आनेपर पहलेका वैर नहीं रहता।’
नारदजीके ऐसा कहनेपर राजा युधिष्ठिरने पूछा ‘ब्रह्मन्! जो महान् व्रतधारी, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, विश्वविख्यात वीर और सत्यवादी थे, उन मेरे भाइयोंको कौन-से लोक प्राप्त हुए हैं? उन्हें मैं देखना चाहता हूँ। सत्यपर दृढ़ रहनेवाले कुन्तीपुत्र महात्मा कर्णको, धृष्टद्युम्नको, सात्यकिको तथा धृष्टद्युम्नके पुत्रोंको भी मुझे देखनेकी इच्छा है। इनके सिवा जो-जो राजा क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्धमें शस्त्रोंद्वारा मारे गये हैं, वे इस समय कहाँ हैं
उनका तो यहाँ दर्शन ही नहीं हो रहा है। राजा विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, पांचालराजकुमार शिखण्डी द्रौपदीके पाँचों पुत्र तथा दुर्द्धर्ष वीर अभिमन्युसे भी मैं मिलना चाहता हूँ। अपने प्राणोंसे भी प्रिय भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धर्मपरायणा द्रौपदीको भी देखना चाहता हूँ। यहाँ रहनेकी मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। यह मैं आपलोगोंसे सच्ची बात बता रहा हूँ। भला, भाइयोंसे अलग रहकर मुझे स्वर्गसे क्या लेना है ? जहाँ मेरे भाई हैं, वहीं मेरे लिये स्वर्ग है। मैं इस लोकको स्वर्ग नहीं मानता।’
देवताओंने कहा- राजन् । यदि उन्हीं लोगोंमें तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो, विलम्ब न करो। हमलोग देवराजकी आज्ञासे हर तरहसे तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं।
यों कहकर देवताओंने देवदूतको आज्ञा दी ‘तुम युधिष्ठिरको इनके सुहदोंका दर्शन कराओ। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर और देवदूत दोनों साथ-साथ उस स्थानकी ओर चले, जहाँ पुरुषश्रेष्ठ भीमसेन आदि थे। आगे आगे देवदूत जा रहा था और पीछे-पीछे राजा युधिष्ठिर। दोनों एक ऐसे मार्गपर पहुँचे, जो बहुत ही खराब था। उसपर चलना कठिन हो रहा था। पापाचारी पुरुष ही उस रास्तेसे आते-जाते थे। वहाँ सब ओर घोर अन्धकार छा रहा था। चारों ओरसे बदबू आ रही थी. इधर-उधर सड़े हुए मुर्दे दिखायी देते थे। जहाँ-तहाँ बाल और हड्डियाँ पड़ी हुई थीं। लोहेकी चोंचवाले कौए और गीध मँडरा रहे थे। सुईके समान चुभते हुए मुखोंवाले पर्वताकार प्रेत सब ओर घूम रहे थे। उन प्रेतोंमेंसे किसीके शरीरसे मेद और रुधिर बहते थे, किसीके बाहु, ऊरु पेट और हाथ-पैर कट गये थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर बहुत चिन्तित होकर उसी मार्गके बीचसे होकर निकले। उन्होंने देखा वहाँ खौलते हुए पानीसे भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसको पार करना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखे रोके से पतोंसे परिपूर्ण असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बी है तो कहीं तपाये हुए लोहेकी बड़ी बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। सब ओर लोहेके कड़ाहोंमें तेल खलाया जा रहा है यत्र तत्र पैने काँटोंसे भरे हुए सेमल वृक्ष हैं, जिनको हाथसे छूना भी कठिन है। इन सबके अतिरिक्त वहाँ पापियाँको जो बड़ी बड़ी यातनाएँ दी जा रही थीं. उनपर भी युधिष्ठिरकी दृष्टि पड़ी। वहाँको दुर्गन्धमे तंग आकर उन्होंने देवदूतसे पूछा- ‘भाई ऐसे मार्गपर हमलोगोंको अभी कितनी दूर और चलना है? तथा मेरे ‘भ्राता कहाँ है?’
धर्मराजकी बात सुनकर देवदूत लौट पड़ा और बोला- ‘बस यहाँतक आपको आना था। महाराज देवताओंने मुझसे कहा है कि ‘जब युधिष्ठिर थक जायें तो उन्हें वापस लौटा लाना।’ अतः अब मैं आपको लोटा ले चलता हूँ। यदि आप थक गये हो तो मेरे साथ आइये। युधिष्ठिर उस बदबूसे विकल हो रहे थे. इसलिये घबराकर उन्होंने लौटनेका ही निश्चय किया। वे ज्यों ही उस स्थानसे लौटने लगे त्यों ही उनके कानोंमें चारों ओरसे दुखी जीवोंकी यह दयनीय
पुकार सुन पड़ी – धर्मनन्दन। आप हमलोगों पर कृपा करके थोड़ी देर यहाँ ठहर जाइये; आपके आते ही परम पवित्र और सुगन्धित हवा चलने लगी है, इससे हमें बड़ा सुख मिला है। कुन्तीनन्दन ! आज बहुत दिनोंके बाद आपका दर्शन पाकर हमलोगोंको बड़ा आनन्द मिल रहा है, अतः क्षणभर और ठहर जाइये। आपके रहनेसे यहाँकी यातना हमें कष्ट नहीं पहुँचाती ।’ इस प्रकार वहाँ कष्ट पानेवाले दुखी जीवोंके भाँति भौतिके दोन वचन सुनकर युधिष्ठिरको बड़ी दया आयी। उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा-‘ओह! इन बेचारोंको बड़ा कष्ट है।’ यो कहकर वे वहीं ठहर गये। फिर पूर्ववत् दुखी जीवोंका आर्तनाद सुनायी देने लगा; किंतु वे पहचान न सके कि ये किनके वचन हैं। जब किसी तरह उनका परिचय समझमें नहीं आया तो युधिष्ठिरने उन दुखी जीवोंको सम्बोधित करके पूछा ‘आपलोग कौन हैं और यहाँ किसलिये रहते हैं? उनके इस प्रकार पूछनेपर चारों ओरसे आवाज आने लगी में कर्ण हूँ, मैं भीमसेन हूँ, मैं अर्जुन हूँ, मैं नकुल हूँ, मैं सहदेव हूँ, मैं धृष्टद्युम्न हूँ, मैं द्रौपदी हूँ और हमलोग द्रौपदीके पुत्र हैं।’ इस प्रकार अपने-अपने नाम बताकर सब लोग विलाप करने लगे। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें विचार करने लगे-‘दैवका यह कैसा विधान है ? मेरे महात्मा भाई भीमसेन आदि, कर्ण, द्रौपदीके पुत्र तथा स्वयं द्रौपदीने भी ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसके कारण इन्हें इस दुर्गन्धपूर्ण भयानक स्थानमें रहना पड़ रहा है। ये सभी पुण्यात्मा थे। जहाँतक मैं जानता हूँ, इन्होंने कोई पाप नहीं किया था; फिर किस कर्मका यह फल है जो ये नरकमें पड़े हुए हैं ? मेरे भाई सम्पूर्ण धर्मके ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्रके अनुकूल चलनेवाले थे। इन्होंने क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहकर बड़े बड़े यज्ञ किये और बहुत-सी दक्षिणाएँ दी हैं, तथापि इनकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई? मैं सोता यहूँ या जागता ? मुझे चेत है या नहीं? कहीं यह मेरे चित्तका विकार अथवा भ्रम तो नहीं है?’
इस तरह नाना प्रकार सोच विचार करते हुए राजा युधिष्ठिरने देवदूतसे कहा- ‘तुम जिनके दूरा हो, उनके पास लौट जाओ, मैं वहाँ नहीं चलूँगा। अपने मालिकोंसे जाकर कहना—’युधिष्ठिर वहीं रहेंगे।’ मेरे रहनेसे यहाँ मेरे भाई-बन्धुओंको सुख मिलता है।’ युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर देवदूत देवराज इन्द्रके पास चला गया और युधिष्ठिरने जो कुछ कहा या करना चाहते थे, वह सब उसने देवराजसे निवेदन किया।
धर्मराज युधिष्ठिरको उस स्थानपर खड़े हुए एक मुहूर्त भी नहीं बीतने पाया था कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता वहाँ आ पहुँचे। साक्षात् धर्म भी शरीर धारण करके राजासे मिलनेके लिये आये। उन तेजस्वी देवताओंक आते ही वहाँका सारा अन्धकार दूर हो गया। पापियोंकी यातनाका वह दृश्य कहीं नहीं दिखायी देता था। फिर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलने लगी। इन्द्रसहित मरुद्गण, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, रुद्र, आदित्य तथा अन्यान्य स्वर्गवासी देवता सिद्धों और महर्षियोंके साथ महातेजस्वी युधिष्ठिरके पास एकत्रित हुए। उस समय इन्द्रने युधिष्ठिरको सान्त्वना देते हुए कहा- ‘महाबाहो ! अबतक जो हुआ सो हुआ, अब इससे अधिक कष्ट उठानेकी आवश्यकता नहीं है। आओ हमारे साथ चलो तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है साथ ही अक्षयलोकोंकी प्राप्ति भी हुई है। तुम्हे जो नरक देखना पड़ा है. इसके लिये क्रोध न करना। मनुष्य अपने जीवनमे शुभ और अशुभ दो प्रकारके कर्मोंकी राशि संचित करता है। जो पहले शुभ कर्मोंका फल भोगता है, उसे पीछेसे नरक भोगना पड़ता है और जो पहले ही नरकका कष्ट भोग लेता है, वह पीछे स्वर्गीय सुखका अनुभव करता है। जिसके पाप-कर्म अधिक और पुण्य थोडे होते हैं, वह पहले स्वर्गका सुख भोगता है तथा जो पुण्य अधिक और पाप कम किये रहता है, वह पहले नरक भोगकर पीछे स्वर्गमें आनन्द भोगता है। इसी नियमके अनुसार तुम्हारी भलाई सोचकर पहले मैंने तुम्हें नरकका दर्शन कराया है। तुमने अश्वत्थामाके मरनेकी बात कहकर छलसे द्रोणाचार्यको उनके पुत्रकी मृत्युका विश्वास दिलाया था, इसीलिये तुम्हें भी छलसे ही नरक दिखलाया गया है।’ [ महाभारत ]

छलपूर्वक असत्य भाषण करनेसे नरक-दर्शन
धर्मराज युधिष्ठिरने स्वर्गमें जानेके पश्चात् देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभासे सम्पन्न हो देवता और साध्यगणोंके साथ एक दिव्य सिंहासनपर बैठकर सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा है। उसका ऐसा ऐश्वर्य देखकर युधिष्ठिर सहसा पीछेको लौट पड़े और उच्च स्वरसे कहने लगे-‘देवताओ! जिसके कारण हमने अपने समस्त सुहृदों और बन्धुओंका युद्धमें संहार कर डाला तथा जिसकी प्रेरणासे निरन्तर धर्मका आचरण करनेवाली हमारी पत्नी पांचालराजकुमारी द्रौपदीको भरी सभामें गुरुजनोंके सामने घसीटा गया, ऐसे दुर्योधनके साथ मैं इस स्वर्गलोकमें नहीं रहना चाहता।’ यह सुनकर नारदजी हँस पड़े और बोले ‘महाबाहो ! स्वर्गमें आनेपर मृत्युलोकका वैर-विरोध नहीं रहता, अतः तुम्हें महाराज दुर्योधनके विषयमें ऐसी बात कदापि नहीं कहनी चाहिये। स्वर्गलोकमें जितने श्रेष्ठ राजा रहते हैं, वे और समस्त देवता भी यहाँ राजा दुर्योधनका विशेष सम्मान करते हैं। यह सत्य है कि इन्होंने सदा ही तुमलोगोंको कष्ट पहुँचाया है, तथापि युद्धमें शरीरकी आहुति देकर ये वीरलोकको प्राप्त हुए हैं। अतः द्रौपदीको इनके द्वारा जो क्लेश प्राप्त हुआ है, उसे भूल जाओ और इनके साथ न्यायपूर्वक मिलो। यह स्वर्गलोक है, यहाँ आनेपर पहलेका वैर नहीं रहता।’
नारदजीके ऐसा कहनेपर राजा युधिष्ठिरने पूछा ‘ब्रह्मन्! जो महान् व्रतधारी, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, विश्वविख्यात वीर और सत्यवादी थे, उन मेरे भाइयोंको कौन-से लोक प्राप्त हुए हैं? उन्हें मैं देखना चाहता हूँ। सत्यपर दृढ़ रहनेवाले कुन्तीपुत्र महात्मा कर्णको, धृष्टद्युम्नको, सात्यकिको तथा धृष्टद्युम्नके पुत्रोंको भी मुझे देखनेकी इच्छा है। इनके सिवा जो-जो राजा क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्धमें शस्त्रोंद्वारा मारे गये हैं, वे इस समय कहाँ हैं
उनका तो यहाँ दर्शन ही नहीं हो रहा है। राजा विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, पांचालराजकुमार शिखण्डी द्रौपदीके पाँचों पुत्र तथा दुर्द्धर्ष वीर अभिमन्युसे भी मैं मिलना चाहता हूँ। अपने प्राणोंसे भी प्रिय भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धर्मपरायणा द्रौपदीको भी देखना चाहता हूँ। यहाँ रहनेकी मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। यह मैं आपलोगोंसे सच्ची बात बता रहा हूँ। भला, भाइयोंसे अलग रहकर मुझे स्वर्गसे क्या लेना है ? जहाँ मेरे भाई हैं, वहीं मेरे लिये स्वर्ग है। मैं इस लोकको स्वर्ग नहीं मानता।’
देवताओंने कहा- राजन् । यदि उन्हीं लोगोंमें तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो, विलम्ब न करो। हमलोग देवराजकी आज्ञासे हर तरहसे तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं।
यों कहकर देवताओंने देवदूतको आज्ञा दी ‘तुम युधिष्ठिरको इनके सुहदोंका दर्शन कराओ। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर और देवदूत दोनों साथ-साथ उस स्थानकी ओर चले, जहाँ पुरुषश्रेष्ठ भीमसेन आदि थे। आगे आगे देवदूत जा रहा था और पीछे-पीछे राजा युधिष्ठिर। दोनों एक ऐसे मार्गपर पहुँचे, जो बहुत ही खराब था। उसपर चलना कठिन हो रहा था। पापाचारी पुरुष ही उस रास्तेसे आते-जाते थे। वहाँ सब ओर घोर अन्धकार छा रहा था। चारों ओरसे बदबू आ रही थी. इधर-उधर सड़े हुए मुर्दे दिखायी देते थे। जहाँ-तहाँ बाल और हड्डियाँ पड़ी हुई थीं। लोहेकी चोंचवाले कौए और गीध मँडरा रहे थे। सुईके समान चुभते हुए मुखोंवाले पर्वताकार प्रेत सब ओर घूम रहे थे। उन प्रेतोंमेंसे किसीके शरीरसे मेद और रुधिर बहते थे, किसीके बाहु, ऊरु पेट और हाथ-पैर कट गये थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर बहुत चिन्तित होकर उसी मार्गके बीचसे होकर निकले। उन्होंने देखा वहाँ खौलते हुए पानीसे भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसको पार करना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखे रोके से पतोंसे परिपूर्ण असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बी है तो कहीं तपाये हुए लोहेकी बड़ी बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। सब ओर लोहेके कड़ाहोंमें तेल खलाया जा रहा है यत्र तत्र पैने काँटोंसे भरे हुए सेमल वृक्ष हैं, जिनको हाथसे छूना भी कठिन है। इन सबके अतिरिक्त वहाँ पापियाँको जो बड़ी बड़ी यातनाएँ दी जा रही थीं. उनपर भी युधिष्ठिरकी दृष्टि पड़ी। वहाँको दुर्गन्धमे तंग आकर उन्होंने देवदूतसे पूछा- ‘भाई ऐसे मार्गपर हमलोगोंको अभी कितनी दूर और चलना है? तथा मेरे ‘भ्राता कहाँ है?’
धर्मराजकी बात सुनकर देवदूत लौट पड़ा और बोला- ‘बस यहाँतक आपको आना था। महाराज देवताओंने मुझसे कहा है कि ‘जब युधिष्ठिर थक जायें तो उन्हें वापस लौटा लाना।’ अतः अब मैं आपको लोटा ले चलता हूँ। यदि आप थक गये हो तो मेरे साथ आइये। युधिष्ठिर उस बदबूसे विकल हो रहे थे. इसलिये घबराकर उन्होंने लौटनेका ही निश्चय किया। वे ज्यों ही उस स्थानसे लौटने लगे त्यों ही उनके कानोंमें चारों ओरसे दुखी जीवोंकी यह दयनीय
पुकार सुन पड़ी – धर्मनन्दन। आप हमलोगों पर कृपा करके थोड़ी देर यहाँ ठहर जाइये; आपके आते ही परम पवित्र और सुगन्धित हवा चलने लगी है, इससे हमें बड़ा सुख मिला है। कुन्तीनन्दन ! आज बहुत दिनोंके बाद आपका दर्शन पाकर हमलोगोंको बड़ा आनन्द मिल रहा है, अतः क्षणभर और ठहर जाइये। आपके रहनेसे यहाँकी यातना हमें कष्ट नहीं पहुँचाती ।’ इस प्रकार वहाँ कष्ट पानेवाले दुखी जीवोंके भाँति भौतिके दोन वचन सुनकर युधिष्ठिरको बड़ी दया आयी। उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा-‘ओह! इन बेचारोंको बड़ा कष्ट है।’ यो कहकर वे वहीं ठहर गये। फिर पूर्ववत् दुखी जीवोंका आर्तनाद सुनायी देने लगा; किंतु वे पहचान न सके कि ये किनके वचन हैं। जब किसी तरह उनका परिचय समझमें नहीं आया तो युधिष्ठिरने उन दुखी जीवोंको सम्बोधित करके पूछा ‘आपलोग कौन हैं और यहाँ किसलिये रहते हैं? उनके इस प्रकार पूछनेपर चारों ओरसे आवाज आने लगी में कर्ण हूँ, मैं भीमसेन हूँ, मैं अर्जुन हूँ, मैं नकुल हूँ, मैं सहदेव हूँ, मैं धृष्टद्युम्न हूँ, मैं द्रौपदी हूँ और हमलोग द्रौपदीके पुत्र हैं।’ इस प्रकार अपने-अपने नाम बताकर सब लोग विलाप करने लगे। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें विचार करने लगे-‘दैवका यह कैसा विधान है ? मेरे महात्मा भाई भीमसेन आदि, कर्ण, द्रौपदीके पुत्र तथा स्वयं द्रौपदीने भी ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसके कारण इन्हें इस दुर्गन्धपूर्ण भयानक स्थानमें रहना पड़ रहा है। ये सभी पुण्यात्मा थे। जहाँतक मैं जानता हूँ, इन्होंने कोई पाप नहीं किया था; फिर किस कर्मका यह फल है जो ये नरकमें पड़े हुए हैं ? मेरे भाई सम्पूर्ण धर्मके ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्रके अनुकूल चलनेवाले थे। इन्होंने क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहकर बड़े बड़े यज्ञ किये और बहुत-सी दक्षिणाएँ दी हैं, तथापि इनकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई? मैं सोता यहूँ या जागता ? मुझे चेत है या नहीं? कहीं यह मेरे चित्तका विकार अथवा भ्रम तो नहीं है?’
इस तरह नाना प्रकार सोच विचार करते हुए राजा युधिष्ठिरने देवदूतसे कहा- ‘तुम जिनके दूरा हो, उनके पास लौट जाओ, मैं वहाँ नहीं चलूँगा। अपने मालिकोंसे जाकर कहना—’युधिष्ठिर वहीं रहेंगे।’ मेरे रहनेसे यहाँ मेरे भाई-बन्धुओंको सुख मिलता है।’ युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर देवदूत देवराज इन्द्रके पास चला गया और युधिष्ठिरने जो कुछ कहा या करना चाहते थे, वह सब उसने देवराजसे निवेदन किया।
धर्मराज युधिष्ठिरको उस स्थानपर खड़े हुए एक मुहूर्त भी नहीं बीतने पाया था कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता वहाँ आ पहुँचे। साक्षात् धर्म भी शरीर धारण करके राजासे मिलनेके लिये आये। उन तेजस्वी देवताओंक आते ही वहाँका सारा अन्धकार दूर हो गया। पापियोंकी यातनाका वह दृश्य कहीं नहीं दिखायी देता था। फिर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलने लगी। इन्द्रसहित मरुद्गण, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, रुद्र, आदित्य तथा अन्यान्य स्वर्गवासी देवता सिद्धों और महर्षियोंके साथ महातेजस्वी युधिष्ठिरके पास एकत्रित हुए। उस समय इन्द्रने युधिष्ठिरको सान्त्वना देते हुए कहा- ‘महाबाहो ! अबतक जो हुआ सो हुआ, अब इससे अधिक कष्ट उठानेकी आवश्यकता नहीं है। आओ हमारे साथ चलो तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है साथ ही अक्षयलोकोंकी प्राप्ति भी हुई है। तुम्हे जो नरक देखना पड़ा है. इसके लिये क्रोध न करना। मनुष्य अपने जीवनमे शुभ और अशुभ दो प्रकारके कर्मोंकी राशि संचित करता है। जो पहले शुभ कर्मोंका फल भोगता है, उसे पीछेसे नरक भोगना पड़ता है और जो पहले ही नरकका कष्ट भोग लेता है, वह पीछे स्वर्गीय सुखका अनुभव करता है। जिसके पाप-कर्म अधिक और पुण्य थोडे होते हैं, वह पहले स्वर्गका सुख भोगता है तथा जो पुण्य अधिक और पाप कम किये रहता है, वह पहले नरक भोगकर पीछे स्वर्गमें आनन्द भोगता है। इसी नियमके अनुसार तुम्हारी भलाई सोचकर पहले मैंने तुम्हें नरकका दर्शन कराया है। तुमने अश्वत्थामाके मरनेकी बात कहकर छलसे द्रोणाचार्यको उनके पुत्रकी मृत्युका विश्वास दिलाया था, इसीलिये तुम्हें भी छलसे ही नरक दिखलाया गया है।’ [ महाभारत ]

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