यमके द्वारपर

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‘न देने योग्य गौके दानसे दाताका उलटे अमङ्गल होता है’ इस विचारसे सात्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषिकुमार नचिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाजश्रवस वाजश्रवाके पुत्र उद्दालकने विश्वजित् नामक महान् यज्ञके अनुष्ठानमें अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्योंकी दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं। पिताके मङ्गलकी रक्षाके लिये अपने अनिष्टकी आशङ्का होते हुए भी उन्होंने विनयपूर्वक कहा- ‘पिताजी! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं-रात कस्मै मां दास्यसीति।”

उद्दालकने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेताने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये। “पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं?’ तीसरी बार पूछनेपर उद्दालकको क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा- ‘तुम्हें देता हूँ मृत्युको मृत्यवे त्यां ददामीति ।’ नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणामके लिये वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पितासेकहा- ‘पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है। आप अपने वचनकी रक्षाके लिये यम-सदन जानेकी मुझे आज्ञा दें।’

ऋषि सहम गये, पर पुत्रकी सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जानेकी आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेताने पिताके चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराजकी पुरीके लिये प्रस्थित हो गये।

यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मणका सत्कार न करनेके कुपरिणामसे वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी ऋषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थितिमें उनके द्वारपर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात बिता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्णकलश अपने ही हाथोंमें लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेताको सम्मानपूर्वक पाद्यार्ध्य देकर अत्यन्त विनयसे कहा-‘आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वारपर तीन रात्रियाँ उपवासमें बिता दीं, यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रिके लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें।’*मूल्यो मेरे पिता मेरे प्रति शान्त संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जायँ और जब मैं आपके यहाँसे लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें। पितृभक्त बालकने प्रथम वर माँगा।

‘तथास्तु’ यमराजने कहा ।

‘मृत्यो! स्वर्गके साधनभूत अग्रिको आप भली भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्गमें अमृतत्व देवत्वको प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यही मेरी द्वितीय वर याचना है।’

“यह अनि अनन्त स्वर्ग लोककी प्राप्तिका साधन है’ – यमराज नचिकेताको अल्पायु, तीक्ष्णबुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासुके रूपमें पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने
कहा- ‘यही विराट्रूपसे जगत्‌की प्रतिष्ठाका मूल कारण
है। इसे आप विद्वानोंको बुद्धिरूप गुहामें स्थित समझिये।’ उस अग्रिके लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञस्थली निर्माणके लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्रिचयन करनेकी विधि बतलाते हुए अत्यन्त संतुष्ट होकर यमने द्वितीय वरके रूपमें कहा-‘मैंने जिस अग्रिकी बात आपसे कहीं, वह आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नोंवाली मालाको भी ग्रहण कीजिये।’

तृतीयं वरं नचिकेता वृणीष्व।’

‘हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये।’ अग्निको स्वर्गका साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यमने कहा।

‘आप मृत्युके देवता हैं’ श्रद्धा-समन्वित नचिकेताने कहा- ‘आत्माका प्रत्यक्ष या अनुमानसे निर्णय नहीं हो पाता। अतः मैं आपसे वहीं आत्म-तत्त्व जानना चाहता हूँ कृपापूर्वक बतला दीजिये।’

यम झिझके। आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेताको उस ज्ञानकी दुरूहता बतलायी, पर ‘उनको वे अपने निश्चयसे नहीं डिगा सके। यमने भुवन मोहन अस्त्रका उपयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकालस्थायिनी भोग सामग्रियोंका प्रलोभन दिया, पर ऋषिकुमार अपने तत्त्व सम्बन्धी गूढ वरसे विचलित नहीं हो सके।

आप बड़े भाग्यवान् हैं।’ यमने नचिकेताकेवैराग्यको प्रशंसा की और वित्तमयी संसारगतिकी निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक वैराग्य-सम्पन्न पुरुष हो ब्रह्मज्ञान-प्राप्तिके अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या अविद्याके विपरीत स्वरूपका यमने पूरा वर्णन करते हुए कहा- ‘आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्याके अधिकारी हैं।’ ‘हे भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो सब प्रकारके व्यावहारिक विषयोंसे अतो जिस परब्राको आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलानेकी कृपा कीजिये।’

“आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसीसे उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है।’ नचिकेताकी जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्माके स्वरूपको विस्तारपूर्वक समझाया वह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीरके नाश होनेपर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महानसे भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरोंमें रहते हुए भी शरीररहित है, समस्त अस्थिर पदार्थोंमें व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कणमें व्याप्त है। सारा सृष्टिक्रम उसीके आदेशपर चलता है। अग्नि उसीके भयसे जलता है, सूर्य उसीके भयसे तपता है तथा इन्द्र वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसीके भयसे दौड़ते हैं। जो पुरुष कालके गाल में जानेसे पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। शोकादि क्लेशोंको पारकर परमानन्दको प्राप्त कर लेते हैं।’

यमने कहा, ‘वह न तो वेदके प्रवचनसे प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धिसे मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रोंके श्रवणसे ही मिलता है।’

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । “यह उन्होंको प्राप्त होता है, जिनकी वामनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्तःकरणको मलिनताको छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पानेके लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं।’

आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध के तपस्वियोंका समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है।

‘न देने योग्य गौके दानसे दाताका उलटे अमङ्गल होता है’ इस विचारसे सात्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषिकुमार नचिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाजश्रवस वाजश्रवाके पुत्र उद्दालकने विश्वजित् नामक महान् यज्ञके अनुष्ठानमें अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्योंकी दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं। पिताके मङ्गलकी रक्षाके लिये अपने अनिष्टकी आशङ्का होते हुए भी उन्होंने विनयपूर्वक कहा- ‘पिताजी! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं-रात कस्मै मां दास्यसीति।”
उद्दालकने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेताने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये। “पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं?’ तीसरी बार पूछनेपर उद्दालकको क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा- ‘तुम्हें देता हूँ मृत्युको मृत्यवे त्यां ददामीति ।’ नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणामके लिये वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पितासेकहा- ‘पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है। आप अपने वचनकी रक्षाके लिये यम-सदन जानेकी मुझे आज्ञा दें।’
ऋषि सहम गये, पर पुत्रकी सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जानेकी आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेताने पिताके चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराजकी पुरीके लिये प्रस्थित हो गये।
यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मणका सत्कार न करनेके कुपरिणामसे वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी ऋषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थितिमें उनके द्वारपर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात बिता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्णकलश अपने ही हाथोंमें लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेताको सम्मानपूर्वक पाद्यार्ध्य देकर अत्यन्त विनयसे कहा-‘आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वारपर तीन रात्रियाँ उपवासमें बिता दीं, यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रिके लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें।’*मूल्यो मेरे पिता मेरे प्रति शान्त संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जायँ और जब मैं आपके यहाँसे लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें। पितृभक्त बालकने प्रथम वर माँगा।
‘तथास्तु’ यमराजने कहा ।
‘मृत्यो! स्वर्गके साधनभूत अग्रिको आप भली भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्गमें अमृतत्व देवत्वको प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यही मेरी द्वितीय वर याचना है।’
“यह अनि अनन्त स्वर्ग लोककी प्राप्तिका साधन है’ – यमराज नचिकेताको अल्पायु, तीक्ष्णबुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासुके रूपमें पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने
कहा- ‘यही विराट्रूपसे जगत्‌की प्रतिष्ठाका मूल कारण
है। इसे आप विद्वानोंको बुद्धिरूप गुहामें स्थित समझिये।’ उस अग्रिके लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञस्थली निर्माणके लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्रिचयन करनेकी विधि बतलाते हुए अत्यन्त संतुष्ट होकर यमने द्वितीय वरके रूपमें कहा-‘मैंने जिस अग्रिकी बात आपसे कहीं, वह आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नोंवाली मालाको भी ग्रहण कीजिये।’
तृतीयं वरं नचिकेता वृणीष्व।’
‘हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये।’ अग्निको स्वर्गका साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यमने कहा।
‘आप मृत्युके देवता हैं’ श्रद्धा-समन्वित नचिकेताने कहा- ‘आत्माका प्रत्यक्ष या अनुमानसे निर्णय नहीं हो पाता। अतः मैं आपसे वहीं आत्म-तत्त्व जानना चाहता हूँ कृपापूर्वक बतला दीजिये।’
यम झिझके। आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेताको उस ज्ञानकी दुरूहता बतलायी, पर ‘उनको वे अपने निश्चयसे नहीं डिगा सके। यमने भुवन मोहन अस्त्रका उपयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकालस्थायिनी भोग सामग्रियोंका प्रलोभन दिया, पर ऋषिकुमार अपने तत्त्व सम्बन्धी गूढ वरसे विचलित नहीं हो सके।
आप बड़े भाग्यवान् हैं।’ यमने नचिकेताकेवैराग्यको प्रशंसा की और वित्तमयी संसारगतिकी निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक वैराग्य-सम्पन्न पुरुष हो ब्रह्मज्ञान-प्राप्तिके अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या अविद्याके विपरीत स्वरूपका यमने पूरा वर्णन करते हुए कहा- ‘आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्याके अधिकारी हैं।’ ‘हे भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो सब प्रकारके व्यावहारिक विषयोंसे अतो जिस परब्राको आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलानेकी कृपा कीजिये।’
“आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसीसे उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है।’ नचिकेताकी जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्माके स्वरूपको विस्तारपूर्वक समझाया वह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीरके नाश होनेपर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महानसे भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरोंमें रहते हुए भी शरीररहित है, समस्त अस्थिर पदार्थोंमें व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कणमें व्याप्त है। सारा सृष्टिक्रम उसीके आदेशपर चलता है। अग्नि उसीके भयसे जलता है, सूर्य उसीके भयसे तपता है तथा इन्द्र वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसीके भयसे दौड़ते हैं। जो पुरुष कालके गाल में जानेसे पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। शोकादि क्लेशोंको पारकर परमानन्दको प्राप्त कर लेते हैं।’
यमने कहा, ‘वह न तो वेदके प्रवचनसे प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धिसे मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रोंके श्रवणसे ही मिलता है।’
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । “यह उन्होंको प्राप्त होता है, जिनकी वामनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्तःकरणको मलिनताको छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पानेके लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं।’
आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेनेके बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध के तपस्वियोंका समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है।

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