“ब्रह्म जिज्ञासा”


पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – सचराचर जगत् में सर्वत्र सभी नाम रूपों में ब्रह्म भाव से अवस्थित माँ ब्रह्मचारिणी ही जगत् की सर्वोच्च सत्ता हैं। श्रद्धा विश्वास सम्पन्न साधक मन में “ब्रह्म जिज्ञासा” तदन्तर ब्रह्मानुभूति ही माँ ब्रह्मचारिणी की आराधना की फलश्रुति है ..! जैसे ही अन्त:करण में ब्रह्म जिज्ञासा की तीव्रता जागृत होती है सम्पूर्ण सृष्टि में माधुर्य-सौंदर्य, एकत्व, परिपूर्णता आदि दिव्य-अनुभव स्थिर होने लगते हैं ! ईश्वर का विचार शान्ति, आनन्द एवं सरसता प्रदाता है। अनन्त सम्भावनाओं से समाहित मनुष्य जीवन की नियति है – ब्रह्म। “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा …”, स्वयं में परम सत्ता को अनुभूत करने की दिव्य सामर्थ्य जागरण में सहायक है – सत्संग। अतः सत्संग ही सर्वथा श्रेयस्कर-हितकर है। मनुष्य अपनी छिपी शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है; जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती हैं, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। जब तक सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है, न कोई इच्छा तृप्त होती है और न ही आत्म-सन्तोष होता है। ईश्वर हम सब को प्राप्त है, उसे पाने के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर को पहचानने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु ही हमें ईश्वर की पहचान कराते हैं। जिसके आशीष-अनुग्रह से आत्म-सत्ता के अर्थ उजागर होते हैं, साधक व्यष्टि से समष्टि सत्ता को स्वयं में अनुभूत कर पाता है – वह है सदगुरू। महर्षि वेदव्यास जी ने अपने शास्त्र में ब्रह्म को सर्वश्रेष्ठ मान कर उसे जिज्ञासा का विषय बनाया। उसे जानने के लिए जिज्ञासा भावना होनी चाहिए – ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ..’। शास्त्रों के अध्ययन से ही उसे पाया जा सकता है – शास्त्रयोनित्वात्। जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है। सत्संग रूपी दर्पण से ही होती है – स्वयं की पहचान। सत्संग स्वयं को पहचानने का एक दर्पण है। परमात्मा जानने का नहीं, मानने का विषय है। मानने में श्रद्धा चाहिए और जानने में बुद्धि। बुद्धि तर्क करती है, जबकि श्रद्धायुक्त जीवन प्रेमपूर्ण होता है। यही धर्म का प्रयोजन भी है। मनुष्य को परमात्मा को पाने की योग्यता अर्जित करना चाहिए। सत्संग स्वयं को जानने, शंकाओं का समाधान पाने और जीवन को मंगलमय करने का साधन है। जगत में रहकर सारे संसार को जान लिया, लेकिन स्वयं को नहीं जाना तो जीना व्यर्थ है। संसार के सारे कार्य करते हुए स्वयं को जानना अत्यंत आवश्यक है। जो स्वयं को जान लेता है, उसका जीवन सफल और सार्थक मानना चाहिए। जगत में वैसे तो असंख्य प्राणी जीते हैं, लेकिन जीना उन्हीं का सार्थक है, जो परमात्मा का होकर परमात्मा को जानकर और मानकर परमात्मा के लिए जीते हैं …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सत्य का साक्षात्कार करते हुए हमें आंतरिक सत्संग करना है। सत्संग से अभिप्राय मन में लौटना है। अपने भीतर ईश्वर के रूप में स्थित सत्य को जानना है। ईश्वर के प्रकाश के निकट होना है, मन की चंचलता को रोक देना है तथा मन की मैल दूर करते हुए स्वयं के दर्शन करने हैं। यही सच्चे अर्थों में सत्संग है।

यही सत्य का वास्तविक स्वरूप है। सत्संग से अभिप्राय सत्य का संग है या फिर ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य है जिनका जीवन आदर्श है, ऐसे महापुरुषों का प्रवचन जो भौतिक जीवन से मन को हटाकर भीतर आत्मिक प्रकाश की और जाने की प्रेरणा देते हैं, यही वास्तविक सत्संग कहलाता है तथा उनका संग करने से मानसिक तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। सत्संग आंतरिक दृढ़ता और आत्म-विश्वास से जुड़ा हुआ भाव है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंत:करण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्य वैसी ही सूक्ष्म भाव है – जैसा कि ईश्वर। ईश्वर का अनुभव आंतरिक प्रकाश में किया जा सकता है, वैसे ही सत्य का साक्षात्कार बाह्य से पूर्णतया कटकर, अपने भीतरी आलोक में लौटने पर ही संभव हो सकता है। जो लोग आत्म-दर्शन के लिए ध्यान की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए सत्संग एक महत्वपूर्ण सोपान है। सत्संग के समय मन निश्छल होता है तथा स्वयं को जानने का मार्ग सुगम हो जाता है। सत्संग ऐसे लोगों के साथ उठने-बैठने या उनकी कथा सुनने से है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। “जिन खोजा तिन पइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ …”॥ अर्थात्, असल वस्तु ब्रह्म दर्शन पाना है तो गहरी डुबकी लगानी ही होगी। गुरु ने आपको समुद्र के किनारे तो लाकर खड़ा कर दिया है जो अनमोल मोतियों से भरा है। ऊपर-ऊपर ही तैरते रहने से मोती नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो गहरी डुबकी लगानी ही पड़ेगी। हाँ, यह बात अलग है कि कभी समुद्र की दया हो जाए और मोती किनारे पर आ जाए; अर्थात्, गुरु की अहैतुकी कृपा हो जाए तो मोती आपके हाथ में आ जाये ..!



पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – सचराचर जगत् में सर्वत्र सभी नाम रूपों में ब्रह्म भाव से अवस्थित माँ ब्रह्मचारिणी ही जगत् की सर्वोच्च सत्ता हैं। श्रद्धा विश्वास सम्पन्न साधक मन में “ब्रह्म जिज्ञासा” तदन्तर ब्रह्मानुभूति ही माँ ब्रह्मचारिणी की आराधना की फलश्रुति है ..! जैसे ही अन्त:करण में ब्रह्म जिज्ञासा की तीव्रता जागृत होती है सम्पूर्ण सृष्टि में माधुर्य-सौंदर्य, एकत्व, परिपूर्णता आदि दिव्य-अनुभव स्थिर होने लगते हैं ! ईश्वर का विचार शान्ति, आनन्द एवं सरसता प्रदाता है। अनन्त सम्भावनाओं से समाहित मनुष्य जीवन की नियति है – ब्रह्म। “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा …”, स्वयं में परम सत्ता को अनुभूत करने की दिव्य सामर्थ्य जागरण में सहायक है – सत्संग। अतः सत्संग ही सर्वथा श्रेयस्कर-हितकर है। मनुष्य अपनी छिपी शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है; जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती हैं, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। जब तक सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है, न कोई इच्छा तृप्त होती है और न ही आत्म-सन्तोष होता है। ईश्वर हम सब को प्राप्त है, उसे पाने के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर को पहचानने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु ही हमें ईश्वर की पहचान कराते हैं। जिसके आशीष-अनुग्रह से आत्म-सत्ता के अर्थ उजागर होते हैं, साधक व्यष्टि से समष्टि सत्ता को स्वयं में अनुभूत कर पाता है – वह है सदगुरू। महर्षि वेदव्यास जी ने अपने शास्त्र में ब्रह्म को सर्वश्रेष्ठ मान कर उसे जिज्ञासा का विषय बनाया। उसे जानने के लिए जिज्ञासा भावना होनी चाहिए – ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ..’। शास्त्रों के अध्ययन से ही उसे पाया जा सकता है – शास्त्रयोनित्वात्। जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है। सत्संग रूपी दर्पण से ही होती है – स्वयं की पहचान। सत्संग स्वयं को पहचानने का एक दर्पण है। परमात्मा जानने का नहीं, मानने का विषय है। मानने में श्रद्धा चाहिए और जानने में बुद्धि। बुद्धि तर्क करती है, जबकि श्रद्धायुक्त जीवन प्रेमपूर्ण होता है। यही धर्म का प्रयोजन भी है। मनुष्य को परमात्मा को पाने की योग्यता अर्जित करना चाहिए। सत्संग स्वयं को जानने, शंकाओं का समाधान पाने और जीवन को मंगलमय करने का साधन है। जगत में रहकर सारे संसार को जान लिया, लेकिन स्वयं को नहीं जाना तो जीना व्यर्थ है। संसार के सारे कार्य करते हुए स्वयं को जानना अत्यंत आवश्यक है। जो स्वयं को जान लेता है, उसका जीवन सफल और सार्थक मानना चाहिए। जगत में वैसे तो असंख्य प्राणी जीते हैं, लेकिन जीना उन्हीं का सार्थक है, जो परमात्मा का होकर परमात्मा को जानकर और मानकर परमात्मा के लिए जीते हैं …।

Respected “Acharyashree” ji said – We have to do internal satsang while interviewing the truth. The meaning of satsang is to return to the mind. One has to know the truth within oneself as God. One has to be close to the light of God, stop the restlessness of the mind and remove the filth of the mind and see oneself. This is satsang in true sense.

This is the real form of truth. Satsang refers to the company of truth or the company of such great men whose life is ideal, the discourse of such great men who remove the mind from physical life and inspire to go towards the spiritual light within, this is called the real satsang and to be in their company It gives mental and spiritual strength and increases self-confidence. Satsang is an emotion associated with inner firmness and self-confidence. When we are in satsang then we are conscious, all the doors of our conscience and conscience start opening and we are easily freed from material desires of life and reside in divine light. Satsang makes us face the truth. Truth is as subtle as God. God can be experienced in the inner light, similarly the truth can be realized only by turning completely away from the outer and returning to one’s inner light. For those who practice meditation for self-realisation, satsang is an important step. At the time of satsang, the mind becomes calm and the way to know oneself becomes easy. Satsang is by getting up and sitting with such people or listening to their stories, who have interviewed the truth. ′′ The one who searched for three drinks, deep water penetrated. I was afraid of drowning, kept sitting on the shore. That is, if the real thing is to get Brahma Darshan, then one has to take a deep dive. The Guru has brought you to the shore of the sea which is full of priceless pearls. You will not find pearls by swimming on the surface, for that you will have to take a deep dive. Yes, it is a different thing that sometimes the sea has mercy and the pearl comes to the shore; Means, if the Guru’s grace is there, then the pearl will come in your hand..!

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