[6]भगवान् से मानसिक
रमण की विशेषता

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|| श्री हरि: ||

गत पोस्ट से आगे …………
दोनों ही अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं | दोनों बातें शास्त्रों में आती हैं | प्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष ही है | भगवान् इस समय नहीं दीख रहे हैं, इसलिये मानसिक उतम है ही | यदि कहीं प्रत्यक्ष से मानसिक उतम बताया जाता है, उसका तात्पर्य यह है कि मूर्ति की पूजा से मानसिक को विशेष बताया गया है | मूर्ति की दृष्टि से विशेष बताया गया है कि साक्षात परमात्मा की अपेक्षा | जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं है, उसके लिये मानसिक की प्रधानता है | जो प्रत्यक्ष है उसके लिये मानसिक की प्रधानता नहीं है | फिर कहा जाय कि कोई महात्मा पुरुष हैं, उनके चरण-स्पर्श, उनके चरणोदक में मन की विशेषता बतायी है | उसमे दूसरा कारण है | प्रत्यक्ष की क्रिया में दम्भ आ जाता है, मानसिक में वह गुंजाइश नहीं है, इसलिये विशेषता बतायी है | वह मानसिक श्रद्धा से ही होता है | अधिकांश में सब अच्छे पुरुष मिलते भी नहीं हैं, इसलिये मानसिक की विशेषता बतायी है |
भगवान् का वियोग संयोग की अपेक्षा अधिक महत्व का बताया जाता है, जैसे गोपियाँ तथा भरत जी |
एक संयोग का आनन्द होता है एक विरह-व्याकुलता का | विरह व्याकुलता में भगवान् की स्मृति अधिक होती है | संयोग का आनन्द दूसरे प्रकार का आनन्द है | भगवान् मिलते नहीं, उस समय भगवान् की विरह व्याकुलता है, उस समय आनन्द-ही-आनन्द है | भगवान् आतुरता, श्रद्धा, प्रेम बढाने के लिये ही विरह देते हैं | भगवान् ने यह बात दिखायी है कि दूर होने पर जितना अधिक प्रेम होता है, निकट रहने पर इतना नहीं रहता | इसलिये ईश्वर और महात्मा श्रद्धा-प्रेम बढाने के लिये ही दूर रखते हैं | दूर रखा जाय इससे प्रेम घटता नहीं, बाध्य होकर रहना पड़ता है | उसमे श्रद्धा-प्रेम घटता नहीं | जो अपनी इच्छा से दूर रहता है, उसमे श्रद्धा-प्रेम घटता है, किन्तु दूर रखा जाता है, वह नहीं रहना चाहता, उसमे प्रेम घटता नहीं | भरतजी रामजी की इच्छा से दूर रहते थे, उनकी प्रीति बढती ही गयी, यदि अपनी इच्छा से दूर रहते तो प्रीति नहीं बढती | गोपियाँ अपनी इच्छी से दूर नहीं रहती थीं, अपितु भगवान् की इच्छा से दूर रहती थीं, इसलिये आज भी उनकी विरह-व्याकुलता की महिमा गायी जाती है |
दूर रहना जिसे भारी नहीं मालूम पड़ता, उस वियोग की महिमा नहीं है | हम लोग सब दूर रहते ही हैं, उसकी क्या महिमा है, किन्तु भगवान् के द्वारा हम दूर रखे जायँ, उसकी ही महिमा है |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक जन्म-मरण से छुटकारा पुस्तक कोड १७९० से |
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