आत्मकल्याण

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‘आत्मकल्याणके अधिकारी पापी, पुण्यात्मा सब हैं। अपने उद्धारकी बात प्रत्येक प्राणी सोच सकता है।’ अम्बपालीके मनमें आशाका संचार हुआ।

‘यान प्रस्तुत है, देवि!’ शृङ्गारदासीने वैशालीकी सर्वसुन्दरी गणिकाका ध्यान आकृष्ट किया। वह रथपर बैठकर भगवान् बुद्धका दर्शन करने चल पड़ी। शास्ता उसीके अम्बपालीवनमें भिक्षुओंके साथ विहार करते थे।

‘जिस यानपर बैठकर मैं राग-रंग और आमोद प्रमोद आदिमें समयका दुरुपयोग करती थी, उसीपर बैठकर शास्तासे धर्मकथा सुनने जा रही हूँ। कितना महान सौभाग्य है मेरा!’ श्वेत-परिधान धारिणी अम्बपालीके मनमें अनेक सात्त्विक भावोंका उदय हो रहा था। उसके शरीरपर एक भी अलंकार नहीं था, रथ वेगके साथ चला जा रहा था। राजपथकी शून्य निर्जनता ही असंख्य हृदयोंपर शासन करनेवाली अम्बपालीकी सङ्गिनी थी।

वनके निकट पहुँचकर उसने रथ रोकनेका आदेश दिया। वह उतर पड़ी। नंगे पाँव पैदल चलकर उसने शास्ताका अभिवादन किया। निकट बैठ गयी। भगवान् बुद्धने उसको धर्मकथासे समुत्तेजित किया। उसका जीवन बदल गया, वह मूर्तिमती विरति-सी दीख पड़ी। “भगवान् भिक्षुओंसमेत कल मेरा भोजन (भात) स्वीकार करें।’ अम्बपालीके निवेदनको तथागतने मौनसे स्वीकार किया।

अम्बपाली अपने प्रासादकी ओर लौट रही थी। उसने देखा कि अनेक रथ नगरसे बनकी ओर आ रहे हैं। उनपर लिच्छवी युवक लाल-पीले-नीले-हरे और f श्वेत परिधानसे समलंकृत होकर तथागतका स्वागत 3 करने जा रहे थे।’इतनी प्रसन्नता क्यों हैं, अम्बपाली ? लिच्छवियोंने राजपथपर रथ रोक दिये।’

‘भद्रो! मुझे आत्मकल्याणका पथ मिल गया है। तथागतने कलके (भात) भोजनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है। वे कल मेरे वनमें (पिण्ड-चार) भिक्षा ग्रहण करेंगे।’ गणिकाने हृदयके समग्र भाव उँडेल दिये।

‘ऐसा कदापि नहीं हो सकता। शास्ता हमारा निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। हम बड़ी से बड़ी कीमत | देकर भात खरीदना चाहते हैं, मिल सकेगा अम्बपाली ?’ र युवकोंने उसका मन धनसे जीतना चाहा।

‘नहीं, भद्रो । अब ऐसा नहीं हो सकता। धन तो मैंने जीवनभर कमाया; आत्मकल्याणका मूल्य धनसे नहीं लग सकता।’ अम्बपाली स्वस्थ हो गयी। रथ अपनी-अपनी दिशाओंकी ओर चल पड़े।

लिच्छवियोंने भगवान् बुद्धका दर्शन किया। भगवान्को पिण्डारका निमन्त्रण दिया, शास्ताने अस्वीकार किया।

‘आज मैं कृतकृत्य हो गयी। भगवान् और भिक्षु संघने मेरे हाथका परोसा भोजन स्वीकार कर मेरा अनित्य जगत्के प्रपञ्चोंसे उद्धार कर दिया।’ अम्बपालीने भगवान् बुद्धके भोजनोपरान्त उनके आसनके निकट बैठकर संतोषकी साँस ली।

सम्यक सम्बुद्धने मेरे अम्बपाली वनमें हा किया है मैं इस आरामको भिक्षुसंघके हाथोंमें सौंपती हूँ।’ तथागतने अम्बपालीके इस निवेदना मौन स्वीकृति दी।

भगवान् बुद्धने उसको धार्मिक कथासे समुतेजित किया। अम्बपाली धन्य हो गयी, पवित्र हो गयी। उसका रोम-रोम पुलकित था। उसका कल्याण हो गया। रा0 श्री0 (बुद्धचर्या)

‘आत्मकल्याणके अधिकारी पापी, पुण्यात्मा सब हैं। अपने उद्धारकी बात प्रत्येक प्राणी सोच सकता है।’ अम्बपालीके मनमें आशाका संचार हुआ।
‘यान प्रस्तुत है, देवि!’ शृङ्गारदासीने वैशालीकी सर्वसुन्दरी गणिकाका ध्यान आकृष्ट किया। वह रथपर बैठकर भगवान् बुद्धका दर्शन करने चल पड़ी। शास्ता उसीके अम्बपालीवनमें भिक्षुओंके साथ विहार करते थे।
‘जिस यानपर बैठकर मैं राग-रंग और आमोद प्रमोद आदिमें समयका दुरुपयोग करती थी, उसीपर बैठकर शास्तासे धर्मकथा सुनने जा रही हूँ। कितना महान सौभाग्य है मेरा!’ श्वेत-परिधान धारिणी अम्बपालीके मनमें अनेक सात्त्विक भावोंका उदय हो रहा था। उसके शरीरपर एक भी अलंकार नहीं था, रथ वेगके साथ चला जा रहा था। राजपथकी शून्य निर्जनता ही असंख्य हृदयोंपर शासन करनेवाली अम्बपालीकी सङ्गिनी थी।
वनके निकट पहुँचकर उसने रथ रोकनेका आदेश दिया। वह उतर पड़ी। नंगे पाँव पैदल चलकर उसने शास्ताका अभिवादन किया। निकट बैठ गयी। भगवान् बुद्धने उसको धर्मकथासे समुत्तेजित किया। उसका जीवन बदल गया, वह मूर्तिमती विरति-सी दीख पड़ी। “भगवान् भिक्षुओंसमेत कल मेरा भोजन (भात) स्वीकार करें।’ अम्बपालीके निवेदनको तथागतने मौनसे स्वीकार किया।
अम्बपाली अपने प्रासादकी ओर लौट रही थी। उसने देखा कि अनेक रथ नगरसे बनकी ओर आ रहे हैं। उनपर लिच्छवी युवक लाल-पीले-नीले-हरे और f श्वेत परिधानसे समलंकृत होकर तथागतका स्वागत 3 करने जा रहे थे।’इतनी प्रसन्नता क्यों हैं, अम्बपाली ? लिच्छवियोंने राजपथपर रथ रोक दिये।’
‘भद्रो! मुझे आत्मकल्याणका पथ मिल गया है। तथागतने कलके (भात) भोजनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है। वे कल मेरे वनमें (पिण्ड-चार) भिक्षा ग्रहण करेंगे।’ गणिकाने हृदयके समग्र भाव उँडेल दिये।
‘ऐसा कदापि नहीं हो सकता। शास्ता हमारा निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। हम बड़ी से बड़ी कीमत | देकर भात खरीदना चाहते हैं, मिल सकेगा अम्बपाली ?’ र युवकोंने उसका मन धनसे जीतना चाहा।
‘नहीं, भद्रो । अब ऐसा नहीं हो सकता। धन तो मैंने जीवनभर कमाया; आत्मकल्याणका मूल्य धनसे नहीं लग सकता।’ अम्बपाली स्वस्थ हो गयी। रथ अपनी-अपनी दिशाओंकी ओर चल पड़े।
लिच्छवियोंने भगवान् बुद्धका दर्शन किया। भगवान्को पिण्डारका निमन्त्रण दिया, शास्ताने अस्वीकार किया।
‘आज मैं कृतकृत्य हो गयी। भगवान् और भिक्षु संघने मेरे हाथका परोसा भोजन स्वीकार कर मेरा अनित्य जगत्के प्रपञ्चोंसे उद्धार कर दिया।’ अम्बपालीने भगवान् बुद्धके भोजनोपरान्त उनके आसनके निकट बैठकर संतोषकी साँस ली।
सम्यक सम्बुद्धने मेरे अम्बपाली वनमें हा किया है मैं इस आरामको भिक्षुसंघके हाथोंमें सौंपती हूँ।’ तथागतने अम्बपालीके इस निवेदना मौन स्वीकृति दी।
भगवान् बुद्धने उसको धार्मिक कथासे समुतेजित किया। अम्बपाली धन्य हो गयी, पवित्र हो गयी। उसका रोम-रोम पुलकित था। उसका कल्याण हो गया। रा0 श्री0 (बुद्धचर्या)

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