श्री द्वारिकाधीश भाग -15
ये द्वारिकावासी- ये यादव उनके पिता की निन्दा करते थे, ये गालियाँ देते थे उन्हें, अन्त में इन्होंने उनका वध
ये द्वारिकावासी- ये यादव उनके पिता की निन्दा करते थे, ये गालियाँ देते थे उन्हें, अन्त में इन्होंने उनका वध
जरासन्ध कह रहा था- ‘फिर भी न शोक करता हूँ, न हर्षित हूँ।अब इस बार हम सब वीरों के यूथप
जाम्बवान हुंकार करके, गर्जना करके, उछल-उछलकर घूँसे मार रहे थे। श्रीकृष्ण स्थिर खड़े थे। उनका दक्षिण कर केवल आघात कर
यहाँ अश्व भड़क उठा है। यह भयभीत हो गया था किसी कारण किन्तु लगता है कि प्रसेन को वह भय
अब तक वे किले से उतर कर मालवे की ओर जाने वाले पथ पर घोड़ों को दौड़ा चुके थे।‘ठीक फरमाते
‘मुझसे उन्होंने मणि माँगा था। अपने लिये माँगने में संकोच लगता होगा- महाराज उग्रसेन का नाम लेकर माँगा। मैं क्या
श्रीकृष्ण का क्रुद्ध स्वरूप उन्होंने देखा और भयभीत स्तब्ध रह गयीं। पता नहीं, उनके भाई का ये क्या करेंगे। बहुत
‘ये देव आदित्य नहीं है’ श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कहा- ‘ये सूर्यदेव के भक्त सत्राजित हैं। लगता है भगवान भास्कर ने
उन्होंने कहा- ‘सब लोग अपने नेत्र बंद कर लें। तब तक बन्द रखें जब तक मेरा शंख नहीं बजता।’श्रीकृष्णचंद्र का
आप सर्वज्ञ हैं और सर्वसमर्थ हैं’- ब्राह्मण ने कहा ‘मैं विदर्भराज-दुहिता का संदेशवाहक बनकर आया हूँ। उनके ही शब्दों में