मीरा चरित भाग- 27
अपनी दशा को छिपाने के प्रयत्न में उसने सखियों की ओर से पीठ फेरकर भीत पर दोनों हाथों और सिर
अपनी दशा को छिपाने के प्रयत्न में उसने सखियों की ओर से पीठ फेरकर भीत पर दोनों हाथों और सिर
‘नहीं बेटा! पर वे मीरा के शिक्षा गुरु हैं, दीक्षा गुरु नहीं।’–दूदाजी ने उत्तर दिया।‘आप रुकिये न भाई!’- मीराने हँसकर
तुम्हारे गिरधर ही तुम्हारे रक्षक हैं। अभी डेढ़ महीना और रहूँगा यहाँ।’ मीराके एकादश वर्ष में प्रवेश के तीसरे ही
मीरा के प्रभु गिरधर नागर।आय दरस धो सुख के सागर। आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी। सखियाँ उसे धीरज देनेके लिये
मीरा हँस पड़ी- ‘ऐसा न करना हो। भगवान् धरती पर पधारते हैं तो उन्हें देखकर, छूकर, सुनकर, कैसे भी उनसे
रह-रहकर उसके नेत्र अर्धनिमीलित हो जाते हैं। पुकारने पर वह उनकी ओर देखती तो है, किन्तु जैसे उस दृष्टिमें जीवन
‘कहीं दर्द होता है मीरा?’– दूदाजीने कहा—’वैद्यजीको बताओ।’ मीराकी समझमें नहीं आया कि क्या कहे। वह उठकर खड़ी हो गयी।
‘अरे, यह क्या बावलापन है?’ माँने फिर समझानेका प्रयत्न किया ‘जा बाबोसासे पूछ, वे बतायेंगे। मैं कोई पुरुष हूँ कि
राठौड़ वीर दूदाजी सचमुच बहुत भाग्यशाली थे। यौवनकालमें वे उद्भट योद्धा थे, अन्तः सलिला भक्ति-भागीरथी अब वार्धक्यमें जैसे कूल तोड़कर
‘संसारमें और भी तो बहुत कुछ स्पृहणीय है बेटी ! फिर इसी ओर तुम्हारी रुचि क्यों हुई? तुम्हारी आयुके बालक