
*मीरा चरित* *भाग- 17*
‘अरे, यह क्या बावलापन है?’ माँने फिर समझानेका प्रयत्न किया ‘जा बाबोसासे पूछ, वे बतायेंगे। मैं कोई पुरुष हूँ कि
‘अरे, यह क्या बावलापन है?’ माँने फिर समझानेका प्रयत्न किया ‘जा बाबोसासे पूछ, वे बतायेंगे। मैं कोई पुरुष हूँ कि
राठौड़ वीर दूदाजी सचमुच बहुत भाग्यशाली थे। यौवनकालमें वे उद्भट योद्धा थे, अन्तः सलिला भक्ति-भागीरथी अब वार्धक्यमें जैसे कूल तोड़कर
‘संसारमें और भी तो बहुत कुछ स्पृहणीय है बेटी ! फिर इसी ओर तुम्हारी रुचि क्यों हुई? तुम्हारी आयुके बालक
यदि कुशल चाहते हो तो लौट जाओ चुपचाप और छः महीनेके बाद श्रीवर्धिनी बावड़ीसे मेरा दूसरा विग्रह मिलेगा। उसे मन्दिरमें
अचानक हड़बड़ाकर वे जग गये और मन-ही-मन कहने लगे-‘यह क्या स्वप्न देखा मैंने? क्या सचमुच ही प्रभु डाकोर पधारना चाहते
चार सेवक और कुछ सैनिक चारों ओर गये हैं।’–नायकने हाथ जोड़े हुए कहा । राजपुरोहितजी और दो उमरावोंके साथ दूदाजी
ठहरिये दादोसा! लगे हाथ एक वरदान चारभुजानाथसे और माँग लूँ। ऐसे पावन पर्व जीवनमें बार-बार नहीं आते।’- पिताके वक्षसे अलग
‘अब मैं जाऊँ कुँवरसा? गिरधर गोपाल अकेले हैं..??”‘जाओ बेटी! तुम्हारी माँ तुम्हें पहुँचा आयँगी।’‘नहीं कुँवरसा! मैं चली जाऊँगी। डर-वर नहीं
‘वाह, तुमने तो चारणोंके समान प्रसन्न कर दिया मुझे। सच, जिस समय कड़खों और रणभेरीकी आवाजें कानोंमें पड़ती हैं। कवचकी
यदि वे मुझे जलती हुई अग्निमें कूद पड़नेको कहें तो क्या मैं यह आगा-पीछा सोचूँगा कि मेरे पीछे मेरी पत्नी